SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीताकी व्याख्याका कारण और उद्देश्य तत्त्व पर आरोपित करनेसे विभूति लाभ होता है और अपने कारण में युक्त करनेसे कैवल्य प्राप्ति होती है। यह सब वैज्ञानिक तत्व एकमात्र योगानुष्ठानसे ही विदित हुआ जाता है। गीता भी, उसी योगमार्गको प्रत्यक्ष कराके, किस प्रकारसे विज्ञानविद् हुआ जाता है तथा ज्ञान लाभ किया जाता है, उसीका उपदेश किया है। गीताके ४र्थ अध्यायका द्रव्ययज्ञ हो जड़विज्ञान है और अन्यान्य ज्ञानयज्ञ ही चतन्य विज्ञान है। इसके व्यतोत, भगवत्सत्वा और उसके विश्वरूपमें. विभिन्न विलास ही यथाक्रमसे ज्ञान और विज्ञान रूपसे ७म अध्याय में वर्णित हुआ है। विज्ञानविद् होनेसे जिस जिस विभूतिका विकाश होता है वह १०म अभ्यायमें वर्णित हुआ है और ज्ञानद्वारा सन्न्यास अवलम्बन करनेसे जो कैवल्य-स्थिति वा पराशान्ति प्राप्ति होती है उसका प्रकरण १८श अध्यायमें ६१-६२ और ६५-६६ श्लोकोंमें व्यक्त हुआ है। इस गीताकी क्रियानुष्ठानसे जितनी ही आलोचना की जायगी, उससे मालूम हो जायगा कि, यह (गीता) विज्ञानशास्त्रका सार है। ३-गीताकी व्याख्याका कारण और उद्देश्य पूज्यपाद शंकराचार्य तथा श्रीधरस्वामी प्रभृति महात्माओंने भाष्य-टीका आदि लिखकर गीताके रहस्यपूर्ण अर्थको सरल कर दिया है और अधुनातन कालमें भी अनेक महापुरुषोंने हिन्दी-बंगला प्रभृति भाषाओंमें गीताकी व्याख्या करके मानवोंका विशेष हितसाधन किया है। वही सब संस्कृत-बंगला-हिन्दी प्रभृति भाषाओंमें लिखित व्याख्या मनुष्यकी आदरणीय है। उन सबके वर्तमान रहनेसे गीता के दूसरे व्याख्यानकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु गीता योगशास
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy