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________________ १७० श्रीमद्भगवद्गीता से भी उस मण्डलमें कुछ भी प्रतिविम्बित होता नहीं। सुषम्ना मार्ग में श्लेष्मा सूख जाके प्राणवायु सूक्ष्म अथच तेजीसे प्रवाहित होके सर्व शरीर में वधु तिक तेजकी वृद्धि होनेसे, उसी तेज करके मनके विषयसंस्रव नष्ट हो आनेसे, कश्मल राशि सब उड़ जाता है; तब वह मंडल अति परिष्कोर स्वच्छ भाव धारण करता है। उस समय उस मण्डलके भीतर अंडाकार एक विम्ब देख पड़ता है। वह अण्डाकार विम्ब कपोतके गण्ड सरिस चमकीला गाढ़ा काला रंगके, किन्तु कभी कभी गला हुआ सोनेके पत्तरसे घेरा हुआ तथा कभी एकदम सुवर्ण वर्णका भी दिखाता है। वह सफेद काला मिला हुआ क्षेत्र देखनेमें ठीक जैसे एक चक्षु है ; उसको ही तत्पद कहते हैं- "दिवीव चक्षुराततम्"। तृतीय उपमा-गर्भमें उल्बका आवरण है। गर्भमें जरायुके भीतर जीव एक जल भरे हुये महीन चमड़ेकी थेलीके भीतर रहता है। उसी चमड़े वाली थलीका नाम उल्ब वा जीवकोष है। जब जीव उसके भीतर रहता है, तब उस उल्बका, आकार ठीक एक अण्डके सदृश होता है। उल्ब जबतक फट न जाय, तबतक जीव प्रसूत नहीं होता, टूट जानेके बाद और जरायुमें रहता भी नहीं, बाहर निकल आ पड़ता है। साधनाके समय ज्ञानज्योति करके अन्तराकाशके "चित्" आईनामें जो अण्डाकार विम्ब देख पड़ता है, वही विश्वकोष वा ब्रह्माण्ड * है। उस कोषके भीतर परम पुरुष "वेदान्तकृत” अवस्थित हैं। इसलिये वह उल्ब स्वरूप है। इस तृतीय अवस्थामें काम उस कोषरूप धरके ज्ञानमयको ढक रखता है। जबतक वह उल्बरूप कोष भेद न हो, तबतक वह पुरुष इसमें आवृत ही रहते हैं। एक मात्र अन्तर शाम्भवोसे वो कोष भेद होय जाता है ।** * मनुके सष्टि प्रकरणमें यही "सहस्रांशुसमप्रभ हैमं अण्डं' है ।। ३८ ॥ ** कूटस्थ भेद करमका उपाय ३य अः २६ श्लोककी व्याख्या है ॥ ३८ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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