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________________ १७१५ तृतीय अध्याय असल बात यह है कि, साधनाके समय काम प्रथम धूनांका आकार धारण करके अन्तर्योतिको ढंक रखता है। पश्चात् ज्योति खिल श्रानेसे चित्-सदृश आकार धरके चित् शरीरमें लिपटा रहके चित्-क्षेत्रको ढंक रखता है; परिशेषमें चित्तके प्रकाशित होनेके बाद अण्डाकार आवरण रूपसे परागति परम पुरुषको ढंक रखता है। एक कामहो इन तीन रूपसे प्रकाश होता है। इन तीन अवस्थामें इन तीन आवरण के क्षय कर सकनेसे ही परम पुरुषार्थ-लाभ होता है ॥ ३८॥ श्रावृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च ॥ ३६ ।। अन्वयः। हे कौन्तेय ! ज्ञानिनः नित्यवेरिणा ( चिरशत्रणा ) एतेन कामरूपेण दुष्पूरेण अनलेन च ज्ञानं आवृतं ।। ३९ ।। अनुवाद। हे कौन्तेय ! ज्ञानियों का नित्य बैरी इस कामरूप दुष्पूरणीय अनलके द्वारा ज्ञान आवृत ( झपा ) रहता है ॥ ३९ ॥ व्याख्या। ज्ञान, ज्ञेय, तथा ज्ञाता-इन तीनका मिलके एक होना ही परम पुरुषार्थ है। इसके भीतर ज्ञाता-जीव है, ईय-- शिव वा परमब्रह्म है तथा ज्ञान-शक्ति एवं अवस्था विशेष है। ज्ञानसे ही ज्ञेयको जाना जाता है। जब विचार और अनुमानसे समझ में आता है कि, सबही ब्रह्म तथा ब्रह्म ही सब हैं, तब ज्ञान शक्ति है; और जब लययोगके अनुष्ठान-फल करके : योगमें लय प्राप्त होनेके बाद) समाहित होके पुनः खंखार-मार्गमें उतर आ करके देखा जाता है कि, मैं ही मैं वा ब्रह्म हूँ, तब ज्ञान अवस्था * है। इस ज्ञानके भिन्न भिन्न स्तर और परिमाण हैं, उसीके अनुसार ज्ञानियोंके भी _* इस ज्ञानका प्रथम परोक्ष ज्ञान और दूसरा अपरोक्ष ज्ञान है। “अस्ति ब्रह्मति चेत् वेद परोक्षज्ञानमेव तत् । अहं ब्रह्मति चेत् वेद साक्षात्कारः स उच्यते।" इति पंचदशी।। ३९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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