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________________ तृतीय अध्याय १६६ सर्व-शरीरसे एक भाप तथा मनमें पूर्व पूर्वकृत कर्म सकलकी स्मृति उठके अन्तराकाशको छा डालता है, ज्ञानरूप अग्निकी ज्योति भी ढक पड़ती है। किन्तु काष्ठके धूआँ ढका अग्निमें वायुका धक्का लगनेसे जैसे धूआँ हट जाके अग्निका जोर होता है, ज्योति खिल बाहर आती है; साधनामें भी वैसे, धीरज धरके स्थिरासनमें लगा रहके आवेगके साथ आत्ममन्त्रसे प्राणचालना करनेसे वो सकल पूर्व स्मृति तथा शरीरको ज्वाला यन्त्रणा सब मिट जाती है; ज्ञानका तेज प्रबलतर होता है; और ज्योति खिल उठ करके अन्तराकाशको ज्ञानालोकसे आलोकित कर देती है । द्वितीय उपमा -आईनामें मलका आवरण है। आईनाके ऊपर मुख लगायके जम्हाई (जम्भन ) लेनेसे जैसे एक भाप सरिस मयला पड़ता है, यदि आईनाके ऊपर उसी प्रकारका या दूसरा किसी प्रकार का गाढ़ा मैला रहे तो उस आईनामें कोई किसीका विम्ब प्रतिफलित नहीं होता, किन्तु यदि वो भयला छटा दिया जाय, झाड़ पॉछके साफ किया जाय तो आईनेकी स्वच्छता प्रकाश पावे, और उसीमें प्रतिफलन क्रिया भी होती रहे। साधनाके प्रथम अवस्थामें कर्म द्वारा अन्तराकाशके आलोकित होनेके बाद, उपासनामय द्वितीय अवस्था आती है। तब कूठस्थमें लक्ष्यस्थिर करनेसे ही, क्रम अनुसार श्वेत स्निग्धोज्वल एक ज्योतिमण्डल दर्शनमें आता है, वोही चिदाकाश है। वो मण्डल आईना सरिस स्वच्छ कह करके, जो कुछ है वह समस्त ही उसीमें प्रतिफलित सदृश प्रत्यक्ष होता है; किन्तु प्रथमावस्थामें वह कश्मलसे ढका रहता है। वह कश्मल नाना प्रकारके होनेसे भी, उसको अतीव सूक्ष्मावस्थामें वह बहुत धुना हुआ रुई अथवा बहुत पतला दुधिया मेघ सरिस सफेद दिखाता है । बाफसे मयले ढके आईनेमें अच्छी चमचमाहट रहनेसे भी उसमें जैसे प्रतिविम्बपात नहीं होता, वैसे दुधिया मेघ सदृश आवरण रहने
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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