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________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता धूमेनानियते वह्निर्यथा दर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। यथा वह्निः धूमेन दर्शः च (दर्पणः च) मलेन आत्रिवते (आच्छाद्यते), यथा गर्भः (भ्रणः ) उल्बेन ( गर्भवेष्टनचर्मणा ) आवृतः, तथा ( प्रकारत्रयेणापि ) तेन ( कामेन ) इदं ( आत्मज्ञानं ) आवृतम् ॥ ३८॥ अनुघाद। अग्नि जसे धूमसे आवृत रहती है, मयलेसे दर्पण जैसे मंपा रहता है, और उल्ब (गर्भवेष्टन चमड़ाकी थेली ) से जैसे गर्भ झपा रहता है, तद्र प कामसे आत्मज्ञान मंपा रहता है ।। ३८ । व्याख्या। अपना रूप और कर्तृत्व फल देखना ही मनुष्यकी आकांक्षा तथा कामना है। यह आकांक्षा-निष्काम सकाम सकल कार्यकी जड़में है, न रहनेसे कार्यका प्रारम्भ होता ही नहीं। किन्तु इस आकांक्षा अर्थात् कामको ही फिर योगमार्गमें आकांक्षा पूरणके अन्तराय तथा प्रावरण स्वरूप जानना। कर्म उपासना और ज्ञानसाधनाकी ये जो तीन अवस्थायें हैं, उन तीन अवस्थाओंमें काम कैसे तीन प्रकारका आवरण स्वरूप होता है, उसे समझानेकी सुविस्ताके लिये तीन दृष्टान्तसे प्रकाश किया गया है। प्रथम उपमा। अग्निमें धूआँका आवरण है। दो लकड़ीको परस्पर घिसनेसे, जो तापकी वृद्धि होती है, वह ताप क्रम अनुसार अग्निमें परिणत होता है। जैसे अग्नि निकल आवे, साथ ही साथ धूआँका भी प्रकाश होता है। साधन में भी ठीक वैसे ही है। प्रथम कर्भावस्थामें प्राणका आलोड़न करके सुषम्नामें धक्का लगते रहनेसे, उससे एक तेज निकल कर व्याप्त होके भीतर भीतर सर्व शरीरको उत्तेजित करता है। उसी तेजसे बुद्धि भी अन्तमुखी होती है। तब अन्तरमें कैसी एक ज्योति खिल उठती है। वह ज्योति हो ज्ञानज्योति है। उस ज्योतिके तेज करके, लकड़ी प्रभृतिसे धूआँ सदृश,
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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