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________________ तृतीय अध्याय १५५ के अर्थात् आसक्ति त्याग पूर्वक कूटस्थमें लक्ष्य स्थिर करके, सर्वकर्मा समाचरणसे योजना करेंगे, तो बुद्धिभेद हो जावेगा। क्षिति, अप तेज, मरुत् , व्योम -इन सकलका नाम सर्व है। रेचक-पूरक करने में उन सकलमें जो एक एक प्राणका टक्कर मारना पड़ता है, वही एक एक कर्म है। वह कर्म ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन कर रहके करना होता है, चक्रके संस्पर्शके भीतर जाना न चाहिये, इस प्रकार करनेसे ही समाचरण करना होता है। जब प्राणविन्याससे प्रति चक्रकी शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है तथा भीतरमें अपूर्व ज्योति-विकाश होता है, तब प्रति चक्रसे प्राणक्रियाको उठालाके एकट्ठा करके मू में "भूवोर्मध्ये" स्थापन करके * शाम्भवीका प्रयोग करने होता है। इसीका नाम सर्व कर्म समाचरणसे योजना करना है। इस प्रकारसे प्राणवर्मको उठालाके आज्ञामें धारण करनेसे मन प्राण एक होता है, अतएव मन और नीचे उतरता नहीं, लक्ष्य कूटस्थमें लग करके अटक रहता है, तब अन्तराकाश सहस्रगुण करके ज्योतिर्मय होता है, * सुवर्णाच्छादित भ्रामरी दृष्टि गोचर होता है, उसके प्रावरण-विक्षेपरूपा दोनों शक्ति भी पापही आप निस्तेज हो जाती है; और उस आवरण-विक्षेपके नाशसे ही धर्मके तत्त्व प्रत्यक्ष हो पड़ते हैं ॥ २६॥ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७ ॥ अन्वयः। प्रकृतेः गुणः ( इन्द्रियादिभिः ) कर्माणि सर्वशः क्रियमाणानि, (किन्तु ) अहंकारविमूढ़ात्मा ( जनाः ) “अहं कर्ता" इति मन्यते ॥ २७ ॥ अनुवाद। प्रकृतिके गुणसे सर्वतोभावमें कर्म सकल सम्पन्न हो रहा है, किन्तु जिन लोगोंका चित्त अहंकारसे विमूढ़ हुआ है, वह सब लोग मनमें समझते हैं कि "मैं कर्ता” हूँ ॥ २७ ॥ * योनिमुद्रासे भी इसी प्रकार होता है, किन्तु वह अचिरस्थायी है। परन्तु पहले पहले योनिमुद्राके अभ्याससे हो उस पथमें लक्ष्य सुगम होता है ॥ २६॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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