SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। शरीरके भीतर एक एक वृत्ति-साधक एक एक पृथक यन्त्र है। जैसे चक्षु, कर्ण, नासिका, प्रभृति बाहरके वृत्ति-साधनका यन्त्र, वैसेही मस्तिष्क अन्तरके वृत्ति-साधनका यन्त्र है। अन्तर्वृत्तिके भीतर मनोज वृत्ति एकशत, तथा बुद्धिज वृत्ति छ प्रकार का है। इन सब वृत्तियों के भीतर किसी किसीका नाम है,-राग, द्वष, हिंसा; ईर्षा, घृणा, शंका; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरता; हर्ष, लज्जा, भय; दम्भ, दर्प, अभिमान; दया, माया, ममता; चिन्ता, शोक, परिताप; शम, दम. तप, क्षमा, तितिक्षा, उपरति; दान, ध्यान, जप; स्मृति, मेधा, धृति; तुष्टि, पुष्टि, स्वस्ति; विवेक, वैराग्य, ज्ञान; सुख, दुःख; इच्छा, आशा; वासना, विलास; अहंकार, अमायिकता; विनय, सौजन्य; गाम्भीर्य, औदार्य; साहस, पराक्रम; स्नेह, भक्ति इत्यादि। . मस्तिष्क वा मगज एक विचित्र पदार्थ है। सृष्टिकर्ताकी ऐसेही कृतित्व है कि, एकही उपादानसे गठित होनेसे भी इसके आकार आयतन और अशके तारतम्य भेद करके तथा कुचन और सीधा टेढ़ीके अल्पाधिक अनुसार करके यह भिन्न भिन्न वृत्तिकी क्रियाओंका आधार वा यन्त्र है। इस मगजके गठन भेदसे ही मनुष्य भला और बुरा होता है। जिसके मस्तक में जितना अधिक यन्त्र है, उसमें उतने प्रकारकी क्रिया-शक्ति है; फिर प्रति यन्त्रके अंगके सौष्ठव वा असौष्ठव हेतु करके शक्तिकी भी तीक्ष्णता वा क्षीणता होती है। उन सब यन्त्रके सहारासे ही "मैं"-वाचक पदार्थ वा श्रात्मा क्रिया करते हैं; इसलिये यन्त्र न रहनेसे आत्मा कोई काम काज कर नहीं सकता । जैसे अांख, कान प्रभृति बिकल होनेसे वा न रहनेसे, देखने सुनने पाया जाता नहीं; वेसेही मस्तिष्कमें स्नायु मण्डलीके कोई अंश विकृत होनेसे किम्बा न रहनेसे, उन उन स्नायु वा यन्त्र-साधन वृत्तियों का भी स्फुरण नहीं होता। यथार्थतः जो कुछ क्रिया है, वह समस्त
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy