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________________ तृतीय अध्याय व्याख्या। जो लोग जीव-बुद्धिसे चालित होकर केवल अपने इन्द्रिय-सुखको ढूढ़ते हैं, किन्तु विचार-बुद्धिका आश्रय न लेनेसे उस सुम्बके स्वरूपको जान नहीं सकते, वही सब अविद्वान हैं; और जो सब लोग विचार बुद्धिका अवलम्बन करके वैराग्यसे विषयानन्दको त्याग करके आत्मानन्द लाभमें यत्न करते हैं, वह सब विद्वान हैं। अविद्वान लोग “धनं देहि, पुत्रं देहि, यशो देहि” इत्यादि वासनामें आसक्त हो करके जिस प्रकार घोर उद्यमके साथ कर्म करते हैं, विद्वान जनका भी ठीक उसी प्रकारके उद्यमसे-किन्तु आसक्ति एकबारगी त्याग करके-कर्म करना होगा, तब वह लोकसंग्रह कर सकेंगे, अर्थात् मूलाधारादि समुदय स्थानसे वृत्ति समूहको आकर्षण कर लाके लययोगसे सत्यब्रह्ममें स्थिति लाभ कर सकेंगे ।। २५॥ न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।। योजयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ २६ ॥ अन्वयः। अज्ञानां कर्मसंगिनाम् बुद्धिभेदं न जनयेत् , ( अतः ) विद्वान् युक्तः ( योगयुक्तः सन् ) सर्वकम्माणि समाचरन् योजयेत् ॥ २६ ॥ अनुवाद । विद्वान पुरुष अज्ञ कासक्त लोगोंकी बुद्धिभेद उत्पन्न नहीं करेंगे, परन्तु युक्त होकरके ( अपने ) सर्व कर्म सम्यक् प्रकार आचरण करके ( उन लोगोंको कम्म में ) नियुक्त करेंगे ** ॥ २६॥ . * विचार-बुद्धिका अभाव करके सुखके प्रकृतभाव ज्ञात न होने से अविद्वान जिस प्रकार आसक्त हो करके कभ करते हैं, उसमें उनको ईश्वरके नामसे विषयोंकी हो आराधना करनी होती है, वह सब कर्म फल करके भोगके देवता आकृष्ट होनेसे भोग में आवद्ध होना पड़ता है, प्रकृत आत्मसुखकी प्राप्ति नहीं होती ।। २५॥ **इस इलोकका यही साधारण अनुवाद है परन्तु इस श्लोकमें साधक किस प्रकार कर्मानुष्ठान करके बुद्धिभेद करेंगे, इसका उपदेश रहनेसे, केवलमात्र कर्मासक्त होनेसे क्या होता है तथा युक्त ( अनासक्त ) होनेसे भी क्या होता है, वही यहां दिखाया
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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