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________________ तृतीय अध्याय १४७ व्याख्या। जन्म देनेवाला ही जनक है। जो प्राणायामादि रूप हल चलाके शरीर रूप क्षेत्रको कर्षण करके सीतारूपा शुद्धमति लाभ करते हैं, वह भी जनक, अर्थात् युजन योगी है। "जनकादयः" अर्थमें समझा देता है कि, पूर्व पूर्व साधकगण, जो लोग शुद्धमति लाभ किये थे ; उन सबने कर्मसे ही संसिद्धि अर्थात् ब्राह्मी-स्थिति लाभ की थी; उसी कर्मको कैसे करना चाहिये, वही बात श्रीगुरुदेव कहते हैं कि, लोक अर्थात् भूलोकसे सत्य-लोक पर्य्यन्त सप्तलोक जिसमें संग्रह हो, अर्थात् जिसमें मूलाधारस्थ भूलोक लय होके समेट श्राय करके स्वाधिष्ठानमें-भूवर्लोकमें मिल करके, पश्चात् भूवः समेट श्रा करके मणिपुर-स्वलॊकमें, स्वः अनाहत-महर्लोक में, महः विशुद्ध-जनलोकमें, जन आज्ञा-तपोलोक में, तथा तपः सहस्रारसत्यलोकमें, इस प्रकार लय योग करके मिलते मिलते एकमात्र सत्य ब्रह्ममें शेष होता है। उसी ओर दृष्टि रख करके अति सावधानीके साथ कर्म करना होता है* ।। २० ॥ यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१॥ अन्वयः। श्रेष्ठ यद् यद् आचरति इतरः जनः तत् तत् एष ( आचरति ); सः ( श्रेष्ठः ) यत् प्रमाणं कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते ॥ २१ ॥ अनुवाद। श्रेष्ठ पुरुष जिस जिस प्रकारका आचरण करते रहते है, इतर लोग भी उसीका अनुसरण करते रहते हैं। वो पुरुष जो प्रमाण करते हैं; लोक भी उसीको आदर्श करके मान लेते हैं ॥ २१ ॥ * एकमात्र प्राणायामसे ही उस लोक समूह संग्रह करनेके लायक दृष्टि स्थिर होती है। ( पश्चात् २५ श्लोक देखिये )। जिस प्रकार दृष्टि रख करके क्रिया करना होता है, उसके प्रथम प्रकरण श्री गुरुदेवके पास निर्णय कर लेना होता है, पश्चात् क्रिया योगमें निजबोधसे क्रमशः सब मालूम हो जाता है ॥२०॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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