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________________ १४६ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। उसी हेतु ( आत्माराम होनेके लिये ) सतत अनासक्त हो करके कार्य्य तथा कर्मका आचरण करों । कारण असक्त ( अनासक्त ) हो करके कर्म करनेसे पुरुष परमपदको प्राप्त होते हैं ॥ १९ ॥ व्याख्या। आत्माराम होना ही परम पुरुषार्थ है। आत्माराम होनेके लिये, साधकको कार्य तथा कर्मको * अनासक्त हो करके करना होता है; क्योंकि, निष्कृति पानेके लिये अनासक्ति ही एकमात्र उपाय है। अनासक्त कर्मसे ही मुक्ति प्राप्ति होती है ** ॥ १६ ॥ कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि ॥२०॥ अन्वयः। जनकादयः कर्मणा एव हि संसिद्धिं आस्थिताः। लोकसंग्रहं एव अपि संपश्यन् कत्तु अर्हसि ॥ २०॥ अनुवाद । जनकादि कम्मी-गणने कर्मसे ही संसिद्धि लाभ किया था; एक मात्र लोक-संग्रहकी तरफ दृष्टि रखके ही तुम्हारा कर्म करना उचित है ।। २० ॥ : : १७ श्लोकमें काय्य एवं कर्म कहा हुआ है। कार्य्य बाहरके, कर्म भीतरके; कार्य स्थूल, कर्म सूक्ष्म कायंके लक्ष्य विषय, कर्मके लक्ष्य आत्मा;-यही पृथकता है। कार्य द्वारा साधकका शरीर-संस्कार होता है, जैसे सात्विकी आहार, व्यवहार शौचाचारादि; कर्मद्वारा चित्तका संस्कार होता है। जैसे, विषयमें वैराग्य, आत्मामें प्रोति इत्यादि ॥ १९ ॥ ** साधकके मनमें धारणा हो सकती है कि, जब आसक्ति त्याग ही उपदेश है, तब आत्माराम होनेके लिये फिर इच्छा क्यों करना? वह भी तो आसक्ति है। इसके उत्तरमै श्रीगुरुदेव अष्टाषक ऋषिके मुखसे कहते हैं-"मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषपत त्यज। क्षमाजबदयातोषसत्यं पीयूषवत् भज ॥" प्रवृत्तिकी आसक्ति त्याग करके निवृत्तिमें आसक्त होनेसे, परिशेषमें समस्त आसक्ति मिट जा करके, मुक्तिलाभ होती है; किन्तु प्रवृत्तिमें आसक्त रहनेसे आसक्ति क्षय नहीं होती, बढ़ती जाती है। साधना भी "कण्टकेनैव कण्टक" इस नीतिके अन्तर्गत है, कर्मसे कर्म क्षय करना ॥ १९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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