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________________ १४८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। (इच्छाका लेशमात्र भी मनके भीतर रखनेसे चलेगा नहीं, एकबारगी अनासक्त होना पड़ेगा ; इस प्रकार हो तो, लक्ष्य स्थिर रख करके कर्म करनेसे इच्छाके प्रयोग बिना कैसे करके लोक संग्रह होवेगा ? वैसे अनुमान किये हुए प्रश्नके उत्तर स्वरूप यह श्लोक कहा गया है। ) जो कुछ उत्पन्न हो जनशब्दके अर्थमें वही आवेगा, अतएव इन्द्रिय तथा इन्द्रियवृत्ति समूहको बिलकुल उसीके अन्तर्गत जानना। “जन" समूहके भीतर श्रेष्ठ है मन। मन जो सिद्धान्त करता है, अथवा जिस दिशामें जाता है, इन्द्रिय-वृत्ति समूह वही करती है तथा उसी दिशा में जाती है *। अतएव यदि उस मनको क्रम अनुसार मूलाधारसे सहस्रारमें उठा लाकर आत्मामें मिला दिया जावे, तो नीचे वाली वृत्ति समूह भी तत्त्वोंके साथ समेट आकरके अात्ममिलनके साथ ही साथ आत्म सत्त्वामें पड़ करके सब ही आत्ममय वा ब्रह्म हो जाता है। यह स्वाभाविक नियम है, यह आपही आप होता है, इसके लिये कोई चष्टा करनी नहीं पड़ती; चेष्टाके भीतर केवल आसक्ति विहीन हो करके प्राण क्रिया करना पड़ता है, यही मात्र है ।। २१) * सब कोई जानते हैं, मन जब जिस विषयमें जाता है उसी विषयको भोग करने लायक इन्द्रियां तत्क्षणात् उत्तेजित हो उठती हैं; मनमें यदि कोई भय दुःखादिका प्रकाश आवे, दूसरी दूसरी इन्द्रिय तब निस्तेज हो पड़ता है; मन यदि सत् चिन्तामें निमग्न रहे, तो इन्द्रिय समूह भी निविकार अवस्थामें रहती है। और प्रतिदिन मनको अवस्था भी समान एक रस रहती नहीं; देखनेमें आता है कि, आज जिसको अति प्रीतिकर अति तृप्तिकर बोध करके भोग करने वाली इन्द्रियोंसे भोग किया जाता है, कल उसोको ही, मनके परिवर्तन हेतु उन इन्द्रियोंके लिये और रुचिकर नहीं होता। इससे यह समझा जाता है कि सब इन्द्रिय वृत्ति ही मनकी अनुगामी है ॥२१॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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