SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बतीय अध्याय नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेष कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥ अन्वयः। इह कृतेन ( कर्मणा ) तस्य अर्थः (प्रयोजनं ) न एष ( अस्ति ), अकृतेन ( कर्मणा ) कश्वन ( प्रयोजनं ) न (अस्ति); सर्वभूतेषु अस्य कचित् अर्थव्यपाश्रयः (पापपुण्यरूपफलभोगः ) न च ( अस्ति ) ॥ १८॥ अनुवाद। इहलोकमें उनको कर्म करनेका कोई प्रयोजन नहीं, कर्म न करनेका भी कुछ प्रयोजन नहीं; शब्दस्पर्शादि पाथिष विषय में (विचरण करके भी) उनको किसी प्रकार पाप पुण्यका फल भोगना नहीं पड़ता ॥ १८॥ व्याख्या। जो आत्माराम हैं इस जगत्में उनको कर्म तथा अकर्मका और प्रयोजन नहीं। साधक नेष्कर्म्य-अवस्था की प्राप्तिके लिये कर्म करते हैं, फिर आत्मगति पानेके लिये नैष्कर्म्य अवस्थाका प्रयोजन है; परन्तु आत्माराम पुरुषके लिये जगत आत्ममय है; अतएव उनके कर्म-अकर्म दोनों ही नहीं, सब एक है; परि-पूर्णत्व हेतु उनमें अभाव न रहनेसे प्रयोजन भी नहीं है। पांचो भूतमें विचरण करनेसे भी भला बुरा फल में उनको लिप्त होना नहीं पड़ता क्योंकि, आत्मज्योति करके उनके चित्तके विशुद्ध होकर आत्ममय हो जानेसे, जलमें फेंका हुआ ( दधि मथन किया हुआ ) नवनीत सरिस, विषयोंके भीतर रहनेसे भी, कोई विषयके साथ मिस खाता नहीं, विशुद्ध ही रहता है ॥ १८॥ तस्मादसक्तः सततं कायं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरषः ॥ १६ ॥ अन्वयः। तस्मात् ( हेतोः, आत्मारामत्व लाभार्थ ) असक्तः ( सन् ) सततं काय्यं कर्म (च) समाचर ; हि ( यतः ) पुरुष असक्तः ( सन् ) कर्म आचरन् परं ( परमं पदं ) आप्नोति ॥ १९ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy