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________________ १३७ तृतीय अध्याय ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन करके दृष्टि कूटस्थमें श्राबद्ध रख करके, मन ही मनमें उच्चारित आत्ममंत्र-मिश्रित प्राण द्वारा प्रतिकमलमें धक्का मारते मारते पूरक रेचक करना होता है; एक स्थानमें धक्का मारना पश्चात् स्वभावके वशमें रह करके, प्राण-प्रवाह में किसी प्रकार कत्तत्त्व न रखके, वहांसे स्थानान्तर जाना पड़ता है, किसी स्थानमें विन्दु मात्र भी इच्छाका प्रयोग * करना उचित नहीं। इस प्रकारसे पूरक रेचक करते जैसे नाना नाड़ियों के भीतर वायु प्रविष्ट होकरके उन सबको क्रियामुखी करती है ; वैसे सहस्रार विगलित सुधा वैश्वानर कर्तृक ऊर्द्धमुखी हो करके मेरुदण्डगत स्नायुमण्डलीको परिपुष्ट तथा सतेज करते हैं, और प्रति पद्ममें उस धक्काके लगते रहनेसे, उसी स्थानके आकाशस्थ वायु पालोड़ित तथा कम्पित होकरके (ठीक जैसे रासायनिक क्रियासे ) उसी उसी स्थानकी शक्तिमें चेतनाका संचार करता है, और देश (अधिष्ठात्री देवीके साथ वो वो कमल) अपूर्व ज्योति करके आप्लुप्त हो जाता है। इसीका नाम देवतनको भावाना है। उस ज्योति से हृदय का अधियारा दूर हो जानेसे, साधकके तब भूत ( जो होय चुका ) भविष्यत (जो होनेवाला) दृष्टि-गोचर होते रहते हैं, एवं पृथिवी जलादिका तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है। इसीको देवगणसे प्रजा वा जीवको भावाना कहते हैं। इस प्रकार भावानाक्रिया होते रहनेसे, परिपुष्ट और प्रबुद्ध शक्तिकी चरम चैतन्य ज्योति तथा जीवके ( साधकके ) चरम तत्त्वज्ञान अन्तमें एक हो जा करके, आत्मज्ञानकी पराकाष्ठा "चिदानन्दरूपः शिवोह” हो जाता है ॥११॥ इष्टान् भोगान् हि वो देवाः दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायभ्यो यो भुक्त स्तेन एव सः॥ १२ ॥ अन्वयः हि ( यतः ) देवाः यज्ञभाविताः ( सन्तः ) वः ( युष्मभ्यम् ) इष्टान् भोगान् दास्यन्ते, तः दत्तान् एभ्यः अग्रदाय यः भुंक्त सः एव स्तेनः (चोरः) ॥१२॥ * इच्छाका विकाश होनेसेही उसके बन्धनमें पड़के पतन होता है नहीं तो उसी स्थान में ही अटक रहना पड़ता है, उन्नति नहीं होती ॥ ११॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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