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________________ १३६ श्रीमद्भगवद्गीता देते हैं; उस समय वह सहज प्राण-यज्ञ लक्ष्य करा देकर कौशलप्रयोग-प्रकरण सिखलायके कहते हैं "इसीसे ही उन्नति, इसीसे ही इष्टफलकी प्राप्ति है" ॥ १०॥ देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११॥ अन्वयः। अनेन ( यज्ञेन यूयं) देदान् मावयत ( संवर्द्ध यत); ते देवाः वः (युष्मान् ) भावयन्तु ( संवर्द्ध यन्तु ); ( एवं ) परस्परं ( अन्योन्यं ) भावयन्तः ( देवाश्च यूयं च) परं श्रेयः अवाप्स्यथ ॥ ११॥ अनुवाद। इस यज्ञसे तुम सब देवतनको भावना करो, वह देवतागण तुम सबकी भावना करें। इस प्रकार परस्पर भावनासे तुम लोग परम इष्टलाभ करोगे ॥११॥ व्याख्या। साधनमार्गमें-शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य, तथा गणपति-ये पांच देवता उपास्य हैं। ये पांच ही सब देव-गंधर्व-किन्नरादिके आश्रय हैं। साधकमात्र ही इन पांच देवतन्का उपासक है, क्योंकि, एक ब्रह्म ही भूलोक मूलाधारमें गणपति, भूवलोकस्वाधिष्ठानमें शक्ति, स्वलोक-मणिपुरमें सूर्य, महर्लोक,-अनदाहतमें विष्णु, जनलोक-विशुद्धाख्यमें शिव, ये पंच रूपसे आविर्भूत होकरके साधकों के हित साधन करते हैं। ये पांच-क्षर ब्रह्म है। इस क्षरउपासनासे भूतशुद्धि होने के पश्चात् तपलोक-आज्ञामें अक्षर ब्रह्म कूटस्थ-पुरुषकी उपासना होती है ; पश्चात् सत्यलोक-सरस्रीरमें उत्तम पुरुषको समझ लेकरके सर्वविद होकरके, सत्-असत्के पर जो, है, वही होना होता है। इस यज्ञ द्वारा उन देवतनको भावाना होता है अर्थात् अभिषेक द्वारा उन देवतनको जगाना होता है ; देवगण जाग करके पश्चात् जीवको भावाते हैं, अर्थात् तत्त्वज्ञान करके आभूषित करते हैं। इस प्रकार परस्परोंकी भावनासे परंश्रेय जो परमागति अर्थात् आत्मगति वा मुक्ति है, वह प्राप्त होती है।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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