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________________ १३८ श्रीमद्भगद्गीता अनुवाद। देवगण यज्ञसे भावित होनेसे तुम सबको इप्टभोग देवेगे, देवतनका दिया हुआ भोग्य, देवतनको न देकरके जो स्वयं भोग करता है, वह निश्चय चोर है॥ १२॥ . व्याख्या। भावाना दो प्रकारकी हैं,-पहले वाली स्वभाविक है, जो असाधन अवस्थामें सर्वशरीरमें भीतर बाहर आपही आप होता है ; और दूसरी कौशलिक, जो साधनामें होती है। पूर्व श्लोककी व्याख्यामें यही कौशलिक "भावाना" की बात कही गई है। प्रत्येक जीवही कर्मफल भोग करते हैं; हृदय-देशमें अधिष्ठित देवगण ही जीवोंके उस कर्मफलके देनेवाले विधाता हैं। स्वाभाविक निश्वास-प्रश्वासादिकी जो क्रियायें शरीर में चल रही हैं, वह सब उन देवगणसे ही चालित एक अलौकिक नियम करके श्राबद्ध हैं ; इसलिये जीव चाहे कौशल अबलम्बन करे चाहे म्वभावके वशमें रहें, इच्छामें हो चाहे अनिच्छामें हो शरीर-क्रिया सम्पन्न करनेके हेतु अज्ञात रूपमें देवतनकी "भावाना" हो जाती ही है। किन्तु जीव-स्वभाव-वश करके अनिच्छामें जो होता है, उसमें विशुद्ध इष्ट भोग * लाभ नहीं होता, क्योंकि, अभावके लिये अशान्ति रह जाती है। इस अभावकी अशान्ति दूर करने के लिये ही इच्छा पूर्वक कौशलका अवलम्बन करना पड़ता है। कौशलका अवलम्बन करनेसे मन प्राण तथा शरीर-सार (सुधा) प्रति कमलमें प्राण विन्यासके साथही साथ देवतनको अर्पण हो जाता है, उस करके विशुद्ध इष्ट भोग जो ब्रह्मानन्द है, वही लाभ होता है। जो कौशलका अवलम्बन नहीं करते हैं, उसके मन, प्राण तथा शरीरज सुधा जीव-स्वभाव-वशसे विषयाभिमुखमें प्रवाहित हो ___ * साधन फल करके जो सब विभूतियां लाम हाती हैं, वह सढ विशुद्ध इष्ट भोग नहीं हैं, क्योंकि उसके भोगनेसे संसारमें आबद्ध होना पड़ता है। उन सब विभूतियोंको ग्रहण न करके, विषयाधिकार पार हो जा करके जो वस्तु लाभ होती, है, वही विशुद्ध इष्ट भोग है, उससे कभी विच्युत होना नहीं पड़ता।। १२॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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