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________________ अक्तरणिका - २-गीताका अधिकार गीता ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी है। इसलिये समुदय विद्या ही इसके अन्तर्गत है। गीताकी सम्यक आलोचना करनेसे वह कल्पवृक्षके न्याय फलप्रसव करता है। गीता समुदय शास्त्रका सार है; इसलिये इसका प्रत्येक श्लोक बल्कि प्रत्येक पाद भी सूत्रसदृश अनन्त भाव प्रकाशक है; अतएव गीता सर्वतोमुखी है। इसको गुरूपदेश अनुसार भक्तिपूर्वक अनुशीलन करनेसे सर्वशास्त्रवेत्ता हुआ जाता है, पृथक् रूपसे दूसरे किसी शास्त्रका अध्ययन करना नहीं पड़ता। एक बात में, गीताको ज्ञानमयो कहा जा सकता है। इस जगत्में जो कोई जो कुछ भाव लक्ष्य करता है, गीताके अबलम्बनसे वह अपने अभीष्ट पयको सम्यक सद्भासित देखता है। समुदय धर्मक्षेत्रमें गीता ध्र + ज्योति सदृश नित्य और स्थिर है। इसकी व्यवहार जाननेसे यह घूर्णायमान आलोकके सदृश निरन्तर ईप्सित पथको लक्ष्य करा देती है। भगवानने खुद कहा है "गीता ज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यह"। वस्तुतः गीताका “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां स्तथैव भजाम्यहम्" यह वाक्य प्रकृत सत्य है; गीतीका व्यवहार जो जिस मक्सेि करेगा, वह उसी भाक्से इसको अपने अनुकूलमें फलदायक रूपसे देखेगा। असल बात यह है कि, गीता योगी के लिये योगशास्त्र, दार्शनिकके लिये दर्शन, ज्योतिविदके लिये ज्योतिष, वैज्ञानिकके लिये विज्ञान, नैतिकके लिये नीति और साधुके लिये सदाचार है। आर्य ऋषिके वाक्यानुसार असंकोचसे कहा जा सकता है कि, "ज्ञानेष्वेव समप्रषु गीता ब्रह्म स्वरूपिणी"। यह यथार्थ उक्त हुआ है कि-- ."गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। ____ या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥" गीता जो योगशास्त्र और विज्ञानशास्त्रं दोनों है, यह बात 'क्रियावान साधकको विशेष रूपसे जानना आवश्यक है, क्योंकि एक
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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