SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११५ द्वितीय अध्याय यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥६०॥ तानि सर्वाणि संयम्य युक्त पासीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६॥ अन्वयः। हे कौन्तेय !- हि ( यतः ) प्रमाथीनि इन्द्रियाणि यततः (प्रयत्न कुर्वत: ) अपि विपश्चितः (विवेकिनः ) पुरुषस्य मनः प्रसभं ( बलात् ) हरन्ति, (अतः) युक्तः ( योगी ) तानि सर्वाणि ( इन्द्रियाणि ) संयम्य मतपरः ( सन् ) आसीत् । यस्य इन्द्रियाणि वशे ( सन्ति ) तस्य हि प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६० ॥ ६१.॥ अनुवाद। हे कौन्तेय । इन्द्रिय समूह प्रमाथी हो करके, हिताहित ज्ञानसम्पन्न , यनशील पुरुषों के मनको बल पूर्वक हरण करता है। इसीलिये युक्त योगी उन सबको संयत करके मत्पर होयके रहते हैं। इन्द्रियगण जिनके वशीभूत प्रज्ञा उन्हींकी प्रतिष्ठिता है ॥ ६॥६१॥ व्याख्या। इन्द्रिया दश-पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रिय है। बाहरके विषयके साथ संस्रव न रख करके भी इन्द्रियसमूह स्वाभाविक वृत्तिसे पापही आप क्रियामुखी होती हैं, तब अन्तरके भीतर एक प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करती हैं; धीरे धीरे क्रिया करनेकी इच्छा प्रबल होय उठ करके हदयको मथन करती रहती है। इन्द्रियमें यह धर्म रहता है इस करके इन सबको प्रमाथी कहते हैं। जिन पुरुषने गुरुपदेशसे समुदय तत्त्व विषय समझकर भला-बुरा ठीक कर लिया है। परन्तु अभी भी अनुष्ठानसे वह उसे अपने प्रायत्तमें ला नहीं सके, किन्तु लानेके लिये यथा नियम चेष्टा करते हैं, उन्होंको “यत्नशीलविपश्चत्” कहते हैं। इस प्रकार विवेकी साधकका मन भी इन्द्रिय करके विषय में आकृष्ट होता है। इसलिये योगी जन इन्द्रियोंको संयत करके, मन ही मनमें भोगके विषयसे उन सबको हटा लाकर, मत्पर होते हैं, अर्थात् मन द्वारा समस्त इन्द्रियोंको बांधकर ला के हिरण्यमय पुरुषमें दृढ़ आबद्ध करते हैं, अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy