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________________ ११४ श्रीमद्भगवद्रीता रस रूपमें, ऐसे करके सब समेट लानेसे एक मात्र शब्दमें परिणत होता है। तब अन्तःकरण उसी शब्बमें श्राकृष्ट होकरके ( क्रिया विशेष द्वारा) परमात्मामें समाहित होता है। यह चरम समेटनेकी अवस्था आनेसेही प्रज्ञा प्रतिष्ठिता होती है ॥ ५८ ॥ . विषया विनिवर्तन्ने निराहारस्य देहिनः । रसवज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥५६॥ अन्वयः । निराहारस्य देहिनः विषयाः रसबर्ज निवर्तन्ते, (किन्तु ) अस्य ( स्थितप्रज्ञस्य ) रसः अपि परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९॥ . अनुवाद। आहारविहोन देहोका मात्र विषय-भोगको निवृत्ति होती है, भोगवासना रह जातो है; किन्तु परं (विष्णुपद ) दर्शनके पश्चात् इनकी भोग-वासनाको भो निवृत्ति होती है ॥ ५९॥ व्याख्या। इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण करनेका नाम आहार है। यह आहार नहीं अयच देहाभिमान वर्तमान है अर्थात् “मैं देही मनमें यह धारणा है, इस प्रकार साधकको शब्द-स्पर्शादि विषय अभिभूत होकरके त्याग होता है सही, ( क्योंकि कर्मके स्वाभाविक फलसे ऊपर उठजानेसे एक प्रकार की समाधि * भोगसे विषय-ज्ञान मिट जाता है, ) किन्तु देहाभिमानपाशका बन्धन रह जानेसे उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती; अतएव विषय-भोगका रस मनमें रह जाता है-भूर नहीं जाता। भोगके विषय देखते मात्र भोगाकांक्षा उनके मनही मनमें पुनरुदित होती है। किन्तु लययोग करके जिन भाग्यवानने एक दफे विष्णुपद लाभ किया है, उनके चित्ताकाशके सकिाल ब्रह्मतेज करके उद्भासित् ( उज्ज्वल ) रहनेसे दूसरा कोई तेज वहाँ प्रतिफलित हो नहीं सक्ता; इस करके उनमें विषय भी नहीं रहता. रसकी आकांक्षा भी नहीं रहती ॥ ५६ ॥ • बाजीगर ( जादूगर ) जसे इन्द्रजाल का जादू देखलानेके लिये श्वासको निरोध करके मृतप्रीय रहता है, वह भी इसा प्रकार की समाधि है ॥ ५९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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