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________________ द्वितीय अन्याय ... यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य सुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५॥ अन्वयः। यः सर्वत्र अनभिस्नेहः (स्नेहशून्यः ) तत्तत् शुभाशुभं प्राप्य न अभिनन्दति, न दुष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्टिता (सः स्थितप्रज्ञः इत्यर्थः)॥५॥ अनुवाद। जो सर्व विषयमें स्नेहशून्य है, उसी उसी शुभ तथा अशुभको प्राप्त हो करके राग अथवा द्वेष नहीं करते, वह स्थितप्रज्ञ हैं ॥ ५५॥ व्याख्या। सब ही ब्रह्ममय हो जानेसे उनको मैं करके ज्ञान ही रहता है। हमारा यह ज्ञान रहता नहीं। सदाकाल भावावस्थामें रहते हैं इसलिये अभाव उनमें आता ही नहीं। इसलिये उनमें शुभ अशुभ नहीं है, निरानन्द तथा आनन्द भी नहीं है ॥५॥ यदा संहरते चायं कूमोशानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥८॥ .. अन्वयः। यदा च अयं (योगी) कूर्म अंगानि इव इन्द्रियार्येभ्यः (शब्द. स्पर्शादिभ्यः). इन्द्रियाणि (चक्षुरादीनि ) सर्वशः संहरते, (तदा) तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ( भवति)॥५८॥ अनुवाद। कछुआ ( कमठ) जसे बाहरसे मुख हाथ पांवको अपने शरीरके भीतर घुसा लेता है, तहत् योगी जब विषयसे इन्द्रियोंको सम्पूर्ण रूप करके बटोर लेते . है, तब ही उनकी प्रज्ञा प्रतिष्ठिता होती है ॥ ५८॥ . व्याख्या। चक्षु प्रभृति पांच ज्ञानेन्द्रियां हर वखत बहिर्मुख रह करके शब्द-स्पर्शादि बाहरका विषय भोग करती हैं। इन सब इन्द्रियणको बाहरसे समेट ला करके (जैसे जीभ उलट करके, दृष्टि ऊर्द्ध में स्थिर करके काय-शिरं-ग्रीवा समान करके इत्यादि), इन सबकी शक्ति को मनोयोगसे अन्तर ( भीतर) की तरफ चला देनेसे एक प्रकार अद्भुत गन्थ, रस, रूप, स्पर्श और शब्दका उपभोग होता है, उससे तत्त्व समूहका ज्ञान लाभ होता है; पश्चात् गन्ध रसमें, -८
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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