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________________ १०६ श्रीमद्भगवद्गीता उसकी न होना ही असिद्धि है। "सिद्धि हो तो अच्छा, न होय तब भी अच्छा, कर्ममें हमारा अधिकार है, मैं कर्म करू”-दृढ़ताके साथ इस प्रकार अनासक्त भाव करके कर्माचरण करनेसे ही सिद्धि असिद्धि समान ( बरोबर ) होता है (यह अवस्था साधना निजबोधगम्य है)। और अगल-बगल स्पर्श न करके केवल मात्र ब्रह्मनाड़ीके अयेन बीच देके गुरूपदेश मतामें प्राणपात करके उठनेसे ही संगत्याग होता है । कूटस्थ में लक्ष्य स्थिर करके फलाफल की ओर मन न देके केवल मात्र ब्रह्माकाशमें विचरण करनेसे ही साम्यभाव श्राता है अर्थात् निश्वास प्रश्वास समान होकरके क्रमशः सूक्ष्म होते होते स्थिर हो जाता है, मन भी कूट पार हो करके "विन्दु-सरोबर" में डूब जाता है, और कोई किसीका भी ज्ञान ( भान् ) रहता नहीं। इस साम्य भावका नाम ही योग है ॥४८॥ दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४६॥ अन्वयः। हे धनंजय ! हि ( यतः ) बुद्धियोगात् ( पृथक ) कम दूरेण अबरं ( निकृष्टं ), ( अतः ) बुद्धौ शरणं अन्विच्छ । फलहेतवः ( सकामाः नराः ) कृपणाः ॥ ४९।। ___ अनुवाद। हे धनंजय ! जिस हेतु बुद्धिवोग के विना कम अत्यन्त निकृष्ट है तुम बुद्धिके शरणापन्न हो जावो। फलाकांक्षियोंको कृपण कहते हैं ॥ ४९ ॥ व्याख्या। योगस्थ हो करके कर्म करना ही बुद्धियोग है, जब "यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते” अर्थात् मन जहाँ जहाँ जाय वहाँ वहाँ ही ब्रह्म दर्शन हो, विषय ब्रह्मज्योतिमें ढंका रहे। यदि कर्म करते करते मन ब्रह्मानन्दमें मतवाला होकर एकाग्रीभूत न हो, स्मृति और कल्पनाके सहारेसे विषयको लेके पालोड़न विलोड़न करे, ऐसा होनेसे वह कर्म व्यवसायात्मिका-बुद्धि-युक्त न होकर विषया
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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