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________________ द्वितीय अध्याय १०५ कर्म है, इस कम्मके पूर्व भी अकर्म है, पश्चात् भी अकर्म है। इस कम्मके पूर्व में "तदर्थीय" क्रिया बिना स्थूल इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ काम होता है, वह सब अकर्म अर्थात् निषिद्ध कर्म है। वैसे ही आज्ञासे उत्तीर्ण होनेके पश्चात् कर्म मिटके जो कर्मविहीन अवस्था आती है, वह भी अकर्म अर्थात् निष्क्रिय अवस्था है। प्रथम अकर्म रजस्तम-क्षेत्रमें, द्वितीय अकर्म सत्वतम:-क्षेत्रमें प्रकाश पाता है। प्रथम वालेमें आसक्ति देनेसे अनन्त विपाकमें पड़ना होता है; दूसरेमें आसक्ति देनेसे अर्थात् निष्क्रिय पद प्राप्त होनेके लिये इच्छा करके क्रिया करनेसे कूटस्थमें कश्मल आता है, अतएव उस कश्मलका भेद न कर सकनेसे नीचे में पड़ा रहना पड़ता है। इसीलिये संगविहीन अर्थात् अनासक्त हो करके कर्तव्य-ज्ञानमें कर्म (क्रिया) को करना होता है;-अनासक्तकी मार्ग खुलासा है; आसक्तका पथ अवरुद्ध ( बन्द ) है। (बादका श्लोक देखो)॥४७॥ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ अन्वयः। हे धनंजय ! योगस्थः ( सन् ) सिद्धयसिदयाः (विषये ) समह भूत्वा संगं त्यक्त्वा कर्माणि कुरु; समत्वं योग: उच्यते ।। ४८ ॥ अनुवाद। हे धनंजय ! योगस्थानमें अवस्थित होकरके सिद्धि एवं असिद्धि सम ज्ञान करके संग त्याग पूर्वक कर्म किया करो। समताको ही योग कहते हैं ॥४८॥ व्याख्या। क्रिय-पद तथा निष्क्रिय-पदके संयोग स्थानको योगस्थान कहते हैं। यह स्थान प्राज्ञाके कूटमें अवस्थित है। कूटके ऊपर लक्ष्य स्थिर करनेसे ही योगस्थ हुआ जाता है। सुषुम्ना-नालके भीतर गुरुके टपदेशके अनुसार प्राण चालना करते करते अन्तमें निरालम्ब निष्क्रिय अवस्था आपही आप आती है, वही कर्मकी सिद्धि है,
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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