SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। कर्ममें ही तुम्हारा अधिकार है, कर्मफलमें कदापि अधिकार न रचना ; कर्मफलके हेतु भी न होना अकर्म में भी अपनी आसक्ति न होने देना ॥ ४७॥ व्याख्या। एक मात्र चैतन्य ही "मैं” पदवाच्य है, उसे छोड़ कर और सब “तुम” पदवाच्य है । जबतक साधक कूट भेद करके स्थितिपदको नहीं पाते हैं, तब तक वह "तुम" पदावाच्य हैं ("ते" ), तब तकही उनके प्राणक्रिया होते रहते हैं, अर्थात् पद्म पद्ममें प्राण विचरण करते रहते हैं, इसलिये उनको कर्ममें अधिकार अर्थात् दखल रहता है। किन्तु कर्म होनेसे ही उसका फल है। जैसे रसायनमें भिन्न भिन्न द्रव्य परस्पर मिल करके रासायनिक क्रियासे नवीन शक्ति उत्पन्न करता है, वैसे मन-प्राण सुषम्नाके अन्तर्गत कमल दलमें वर्ण.रूपा मातृकानिचयके साथ मिलित होकर नाना प्रकार विभूति वा शक्ति उत्पन्न करता है। वह शक्ति साधकको आश्रय करने आती है। साधक यदि उस शक्ति पर "अधिकार" करें, तो ऐसा करनेसे साधक भोगमें आबद्ध होकर और उन्नति लाभ नहीं कर सकते। इसलिये भगवान् कहते हैं;-"कदापि कर्मफल पर अधिकार न करना” केवल ऐसी ही बात नहीं, "कर्मफलके हेतु भी न होना” अर्थात् कर्मफल जिसमें उत्पन्न हो, वह काम न करना। प्रत्येक कमलमें प्राणपात करनेके समय यदि आसक्ति प्राणसे हट करके कमल दलमें पड़ जाये, तो उस संगसे काम उत्पन्न होकर फलोत्पादन करता है; किन्तु यदि उस समय आसक्ति प्राणको छोड़ कर अलग न होने पावे, तो कामोत्पन्न हो नहीं सकता,-प्रा गापातसे केवल शक्ति प्रबुद्ध होता है, उत्थान नहीं करता-"परस्परं भावयन्तः" हो करके "परंश्रेयः" लाभ होता है (३ य अ. ११ श श्लोककी व्याख्या ), कम फलका हेतु होना नहीं पड़ता। और भी कहते हैं-"अकर्मका संग भी न करना” । सुषुम्नान्तर्गत ब्रह्मनाड़ीमें मूलाधारसे आज्ञा पर्य्यन्त प्राण-चालन ही
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy