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________________ ८७ द्वितीय अध्याय तो, जिस कर्ममें तुम अकृतकार्य हुए हो कर्मप्रारम्भ करके सिद्धि लाभ करने की शक्ति हुई नहीं, वही तुम्हारी अकीति। यह अर्काति केवल इसी जन्ममें तुम्हारे मनमें अनुशोचना का उद्रेक करके निरस्त होवेगी ऐसा नहीं; यह अकीति तुम्हारे लिये अव्यय अक्षय होकरके रहेगी। क्योंकि भूत सकल (अपंचीकृत पंचमहाभूतनिम्मित सूक्ष्मावयव मन आदि सप्तदश कला ) तुम्हारी उस अकीत्तिकी घोषणा करके अव्यय करेगा अर्थात् अति उन्नति की अति अवनति कारण करके बार बार तुमको जन्म मृत्युके प्रवाहमें डाल कर पूर्वकृत कर्मकी स्मृति संस्कारके हाथसे तुमको निष्कृति पाने न देगा; तब, ( संसारवाही मूढ़ लोग कष्ट भोग करके जैसे कहता रहता है “जनम जनम मैं कितने पाप किये हैं-कितनी गोहत्या नरहत्या, स्त्रीहत्या की है, अब उसीका फल भोग रहा हूं" इसी प्रकार करके ) घोर संस्कारके कृपामें तुम्हारे ही मुखसे ऐसी ऐसी बातें निकलेंगी;-इसीको ही घोषणा जानिये । फिर वह समस्त कार्य भी संस्कारमें परिणत होकर तुम्हारी भावी उन्नतिका कण्टक होवेगा। इसलिये कहता हूँ कि साधक ! तुम सम्भावित ( बहुमत, पूजित ) अर्थात् मन बुद्धि प्रभृति सप्तदश कलाके श्रेष्ठ हो; तुम इच्छा करके यदि यह अकीर्ति लोगे, तो यह तुम्हारे मरणसे भी अधिक होवेगी। क्योंकि मरनेसे शरीर का विच्छेद होनेके पश्चात् कृतकम्मका संस्कार ही रह जाता है, प्राकृतिक यन्त्रणा रहती नहों, वह शरीरके साथ ही साथ मिट जाती है सही किन्तु इस करके पर जन्मके शरीर में दूनासे भी अधिक परिमाण यन्त्रणा भोग करनी पड़ती है ॥ ३४ ॥ भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥ अन्वयः। महारथाः त्वां भयात् रणात् उपरतं (निवृत्त) मस्यन्ते (मन्येरन् )। येषां च त्वं बहुमतः भूत्वा लाघवं यास्यसि ॥ ३५ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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