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________________ ८६ श्रीमद्भगवद्गीता अथचेत् त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्तिच हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥ अन्वयः। अथचेत् ( यदि ) त्वम् इम धम्भ्य ( धर्मविहितं ) संग्राभं न करिष्यसि, ततः स्वधर्मे कीत्तिं च हित्वा पाय अवाप्स्यसि ।। ३३ ।। अनुवाद। अभी अगरचे तुम यह धर्म युद्ध न करोगे तो ऐसा होनेसे स्वधर्म तथा कीत्ति परित्याग करके तुम पापको प्राप्त होंगे ॥ ३३ ॥ व्याख्या। साधककी उस सुखकी अवस्थाके आते ही साधक सामने शुद्ध चैतन्यमय श्रीकृष्ण परमात्माका दर्शन करते हैं, और क्षत्रिय वृत्ति रहनेसे प्रवृत्ति-निवृत्ति को क्रिया समूह साधकमें प्रत्यक्ष होती है। इसलिये कहा गया-सुखी क्षत्रिय हो करके यदि तुम अभी यह आत्मधर्म-विषयक प्रवृत्तिनाशक युद्ध (प्राणायामादि साधना) न करोगे तो उससे स्वधर्म ( ब्राह्मीस्थिति ) और कीर्ति (ब्राह्मीस्थिति प्राप्त होने की चेष्टामें अनुष्ठित कर्ममें जो एक एक सिद्धि लाभ होने के पश्चात् आत्मख्याति अर्थात् अपने सामर्थके प्रति अपनी विशुद्ध प्रशंसा और विश्वास होता है, वही) परित्याग करके तुमको पापमें अर्थात् प्राकृतिक चंचलता में-जन्म मृत्युके प्रवाह में पड़ना होवेगा ॥३३॥ अकीर्तिव्चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । सम्भावितस्य चाकीतिमरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥ अन्वयः। अपिच भूतानि ते अव्ययां अकोत्ति कथयिष्यन्ति; सम्भावितस्य ( बहुमतस्य ) अकीतिः भरणात् अतिरिच्यते ( अधिका भवति ) ॥ ३४ ॥ अनुवाद। और भी भूतगण तुम्हारे अक्षय अकीत्तिमें घोष करेंगे; समर्थ पुरुषको अर्कात्ति मृत्युसे भी अधिक होती है ॥ ३४ ।। व्याख्या। साधक ! यदि तुम क्रियामें इतनी दूर अग्रसर होनेके पश्चात् अभी कातरता कर प्राणायामादि क्रिया (युद्ध ) त्याग करो
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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