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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ अनुवाद। महारथ समूह मनमें समझेंगे कि भय करके तुम युद्धसे प्रतिनिवृत्त हुये हो; जो लोग तुमको अनेक श्रेष्ठ कह करके मानते हैं, उन लोगोंके पास तुम बहुत छोटे हो जावोगे ॥ ३५ ॥ व्याख्या। अकृतकार्य होनेसे केवल बाहरके ही सामर्थ्यवान् लोग तुम्हारी अवज्ञा और घृणा करते हैं, ऐसा नहीं; अन्तःकरणके भीतर भी प्रवृत्ति-निवृत्तिके भीतर प्रधान प्रधान वृत्ति समूह ( महारथाः) मनमें उदय हो करके आत्मग्लानि उत्पन्न करती हैं; तब मनमें होता है, हाय हाय !! डरके मारे उपरत (पीछेपांव ) हुआ हूँ !मुझको धिक है ! उस प्रकार, पहले पहले जिन सब वृत्तियोंके ऊपर एक शक्ति रहनेसे आत्ममान बनी रहती है, पश्चात् उन सबके प्रधान हो उठनेसे आप ही आप अन्तःकरणमें थोड़ासा लघु होना पड़ता है, पहले सरिस मन और उतना तेज धर नहीं सकते। साधक ! तुम अपना सब प्रकारका अभिज्ञताके साथ मिलाके देखलो, सब मिल जावेगा ॥३५॥ अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥३६॥ अन्वयः। तव अहिताः ( शत्रवः ) तवसामय निन्दन्तः बहून ( अनेक प्रकारान् ) अवाच्यवादान् च वदिष्यन्ति; ततः दुःखतरं किं नु ? ॥ ३६ ।। ___ अनुवाद। शत्रुपक्ष तुम्हारी शक्ति सामर्थ्यकी निन्दा करके बहुत ही अकथ्य कथनका प्रयोग करेगा; दुखका विषय इससे अधिक ओर क्या हो सकता है ? ॥३६।। व्याख्या। अहितों अर्थात् शत्रु समूह* ( रिपु और इन्द्रियगण ) तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगे, अनेक अनिष्टकी बातें भी कहेंगे, अर्थात् तुम आपही. आप मनही मनमें अपनी अनेक प्रकार निन्दा ग्लानि करते रहोगे। इससे अधिक दुःखदायी और क्या है ? "धिकजीवितं व्यर्थमनोरथस्य" ॥ ३६ ॥ * शत्र-२य अ. ८ म श्लोकका व्याख्या देखो ॥ ३६॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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