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________________ २ . . अवतरणिका अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् मुक्तिका निदान है उस धर्मको दीर्घकालसे श्रेयाकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रमी लोग पालन करते चले श्रा रहे हैं। कुछ कालमें वर्णाश्रमियोंकी विषयवासना द्वारा उनके विवेक । ज्ञान संकुचित हो जानेसे एवं धर्म अभिभूत और अधर्मकी वृद्धि होने से वह आदिकर्ता नारायण जगत की स्थिति और पालनका अभिलाषी होकर पृथिवीस्थ ब्राह्मणों की ब्राह्मणत्व रक्षाके लिये देवकीके गर्भ में वसुदेवके औरससे श्रीकृष्ण नाम ग्रहण करके अंशके साथ अवतीर्ण हुये। इसका कारण यह है कि ब्राह्मणत्वकी रक्षा होनेसे वैदिक धर्मकी रक्षा होती है और उसके अधीन वर्णाश्रम धर्मकी भी रक्षा होती है। ... "ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज सम्पन्न वह भगवान जन्ममृत्यु रहित, भूतगणोंके ईश्वर और नित्यशुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव होकरके भी त्रिगुणाल्मिका मूल प्रकृति स्वरूपा स्वकीय वैष्णवी माया को वशीभूत करके लोकानुग्रहके निमित्त साधारण देहधारीयोंके सघश जन्म ग्रहण करते हैं । निजका कुछ प्रयोजन न रहनेसे भी जीवों के प्रति दयापरवश होकर शोकमोहसागरमें निमग्न अर्जुनको उन्होंने उस द्विविध वैदिक धर्मका उपदेश किया कारण कि अधिक गुणयुक्त पुरुष जिस धर्मको ग्रहण और अनुष्ठान करते हैं वह औरोंमें प्रचार होता है। सर्वज्ञ भगवान वेदव्यासने भगवदुपदिष्ट उस धर्मको ( महाभारतीय भीष्म पर्वके गीता पर्वाध्यायमें ) सात सौ श्लोकोंमें "गीता" नामसे संकलन किया है। "वेदार्थका सार संग्रहरूप इस गीता शास्त्रका अर्थ दुर्विज्ञेय है । उस अर्थको खुलासा करनेके लिये बहुतेरे लोगोंने पद, पदार्थ, वाक्यार्य और न्याय समूह विवृत किया है, परन्तु उन सबके परस्पर अत्यन्त विरुद्ध और अनेकार्थ बोधक होनेसे प्रकृत अर्थ निर्धारणके निमित्त मैंने लौकिक अर्थको ग्रहग करके संक्षेपसे विवृत किया है।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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