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________________ ॥श्री दुर्गा ॥ अवतरणिका २-गीता परिचय गीताका अनुशीलन करना हो तो पहले गीता क्या है सो जानना चाहिये। श्रीमत् स्वामी शंकराचार्य देवने स्वकीय गीता भाज्यके उपक्रमणिकामें इस विषयको विशदरूपसे विवृत किया है। गीतासेवियोंकी अकातिके तिमित्त गीताके परिचयके लिये उनकी उपक्रमणिकाका अविकल अनुवाद नीचे लिखनेकी चेष्टा की जाती है। .. “परब्रह्म नारायणसे अव्यक्त अर्थात् मूल प्रकृति की उत्पत्ति हुई। अव्यक्तसे एक अण्डकी उत्पत्ति हुई, उसो अण्डके भीतर इन समस्त लोक और सप्तद्वीपा मेदिनीकी सृष्टि हुई * । भगवान नारायणने इस जगतकी सृष्टि करके इसकी स्थितिके लिये मरीचि प्रमृति प्रजापतिगणको सृजन किया और उनको वेदोक्त प्रवृत्ति-लक्षणाक्रान्त धर्म प्रहण कराया। फिर सनकसनन्दादि मुनियोंको उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य लक्षणाक्रान्त निवृत्ति-धर्म बतलाया। "वेदोक्त धर्म दो प्रकारका है-प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण। उनमेंसे एक जो जगतकी स्थितिका कारण है, जो प्राणियोंका साक्षात . * म्ल... श्लोक यह है-“ऊँ नरायणः परोऽव्यकादम्बमव्यक्त-सम्भकं । अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥” इस श्लोक में, सष्टि प्रकरण व्यक्त हुभा है। इस श्लोकका ऊँकार-ब्रह्म है, नारायण-पुरुषोत्तम है, अव्यमा मूल प्रकृति है, अण्ड-चतुविशति तत्त्व की समष्टि है, और लोकाः सप्तदीपा च मेदिनी-चौबीस तत्त्वसे निर्मित चदुर्दश भुवन है। साधन प्रकारणमें ४ । ५ चित्र देखो।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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