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________________ गीता परिचय "सहेतुक संसारकी अत्यन्त निवृत्ति अर्थात् परामुक्ति ही इस गीता शास्त्रका मूल प्रयोजन है। सर्व कर्मको संन्यास करके आत्मज्ञान निष्ठा रूप धर्मके ग्रहणसे ही इसको लाभ किया जाता है। इसी. प्रकार गीतार्य धर्मको उद्देश करके ही श्री भगवानने अनुगीतामें कहा है-'जिससे ब्रह्मपद लाभ किया जाता है, वही सुपर्याप्त धर्म है।' उसमें और भी कहा है-जो पुरुष एकासनमें बैठके मौन होकर कुछ भी चिन्ता न करके परब्रह्ममें लीन होते हैं, उनके लिये धर्माधम शुभाशुभ कुछ भी नहीं है।' और भी कहा है-'संन्यास लक्षण ही ज्ञान है।' इस गीताके शेषभागमें भी अर्जुनको कहा है-'सर्वधर्मको परित्याग करके एकमात्र मेरे ही शरणापन्न हो जाओ'। जो प्रवृत्तिलक्षण धर्म अभ्युदय और वर्णाश्रमके उद्देश्यसे विहित हुआ है, वह देवादि स्थान प्राप्तिका कारण होने पर भी उसको निष्काम भावसे ईश्वरापितबुद्धि होकर अनुष्ठान करनेसे उससे सस्वशुद्धि होती है। शुद्ध सत्त्व पुरुष ज्ञाननिष्ठाके अधिकार प्राप्त होते हैं, और ज्ञानोत्पत्ति से मुक्तिलाभ होती है। इसी अर्थको उद्देश करके श्रीमगवानने गीता में कहा है-'योगी लोग यतचित्त और जितेन्द्रिय होकर कर्म समूह ब्रह्ममें अर्पण करके और निःसंग होके आत्मशुद्धिके लिये कर्मका अनुष्ठान करते हैं। "निःश्रेयस प्रयोजन और परमार्थतत्त्व, ये दो प्रकारके धर्म और परब्रह्मस्वरूप वासुदेवको विशेष रूपसे व्यक्त करके मैंने विशिष्ट प्रयोजन-सम्बन्ध-अभिधेययुक्त गीता शास्त्रको यथार्थ व्याख्या करनेको चेष्टा की; इसलिये कि गीतार्थ अवगत होनेसे ही समस्त पुरुषार्थ सिद्धि होती है।” श्रीमत् शंकराचार्यजी की उस उपक्रमणिका पाठ करनेसे गीताका पूरा परिचय मिलता है। असल बात यह है कि. गोता व्यासदेवसे लिखो हुई भगवन्मुखनिःसृत श्लोक माला है। इस कारण गीता
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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