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________________ रघुवंशमहाकाव्य तरह वह कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता था। प्रजा के असन्तोष को दबाने की यद्यपि वह पर्याप्त शक्ति रखता था परन्तु फिर भी वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता था जिससे प्रजा में असन्तोष व्याप्त हो। धर्म, अर्थ और काम का परस्पर सामंजस्य रखता हुआ वह निष्काम भाव से उनका प्रयोग करता था। वह मित्रों को मध्यम दशा में रखता था क्योंकि जानता था यदि मित्र निर्बल रहें तो कोई सहायता नहीं कर सकेंगे और यदि प्रबल हो जायेंगे तो विरोध करने लगेंगे। उसके राज्य में स्त्रियाँ और व्यापारीवर्ग सुरक्षित था। सभी लोग आततायियों से निश्चिन्त होकर सर्वत्र ऐसे विचरण करते थे जैसे घर में घूम रहे हों। वह पृथ्वी की हर प्रकार से रक्षा करता था जिसके बदले में पृथ्वी उसे प्रचुर मात्रा में खानों से रत्न, खेतों से अन्न और जंगलों से हाथी आदि देती थी। चन्द्रमा भी पूर्ण होने के बाद क्षीण होने लगता है, समुद्र भी ज्वार आने के बाद उतरने लगता है, परन्तु राजा अतिथि की दिन-पर-दिन वृद्धि ही होती गई। जैसे समुद्र से पानी लेकर बादल पृथ्वी पर बरसा देते हैं, ऐसे ही उससे पाये हए धन से दरिद्र भी दानी बन गये थे। उसने अपने अश्वमेधयज्ञ की पूर्ति के लिये दिग्विजय किया था। शास्त्रीय विधि से अश्वमेधयज्ञ करके वह देवराज इन्द्र की तरह राजाधिराज कहलाने लगा। पृथ्वी के समस्त राजाओं ने उसके आज्ञापत्रों को शिरोधार्य किया। राजा अतिथि ने इस यज्ञ में ब्राह्मणों को इतनी दक्षिणा दी कि लोग उसे कुबेर समझने लगे।
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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