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________________ अष्टादशसर्ग का कथासार अतिथि का निषधदेश के राजा की कन्या से विवाह हुआ। उससे जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका भी निषध ही नाम रखा गया। जैसे वर्षा हो जाने पर अच्छी फसल की आशा से कृषक प्रसन्न हो जाते हैं, ऐसे ही बलिष्ठ उत्तराधिकारी से प्रजा के कल्याण की आशा होने पर राजा अतिप्रसन्न हो गया। चिरकाल तक राज्य का उपभोग करके युवा पुत्र निषध को राज्य सौंपकर वह स्वर्ग सिधार गया। कमल-जैसी अांखोंवाले वीर निषध ने भी बहुत काल तक समुद्रमेखला पृथ्वी पर सुन्दर शासन किया। इसके बाद उसका पुत्र नल राजा हुआ। उसने शत्रुओं को ऐसे मसल डाला जैसे हाथी झाड़ियों को मसल देता है। उसके बाद नीले आकाश के रंगवाला उसका पुत्र नभ राजा हुअा। उसे राज्य का भार सौंपकर नल ने तपस्या के लिये वन को प्रस्थान किया । नभ के अनन्तर उसका पुत्र पुण्डरीक राजा हुआ । पुण्डरीक का पुत्र क्षेमधन्वा था जिसने अपने शौर्य से देवताओं का भी सेनापति बनने की क्षमता अर्जित कर ली थी। क्षेमधन्वा का पुत्र देवानीक हुआ जो अपने पिता-जैसा ही वीर था। अपनी कुलपरम्परा के अनुसार पुत्र को राज्य देकर क्षेमधन्वा भी मुक्त हो गया। देवानीक का पुत्र अहीनगु हुआ जो पृथ्वी का एकच्छत्र राजा था। यह अत्यन्त कोमल प्रकृति का था। शत्रु भी उससे प्रेम करते थे। किसी प्रकार का व्यसन उसे छू तक नहीं गया था। अपने पूर्वज राम की तरह ही प्रजारञ्जक शासक बनकर उसने चिरकाल तक साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों उपायों के सफल प्रयोगों द्वारा पृथ्वी का शासन किया। अहीनगु की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पारियान राजा हुआ । उसके बाद उसका पुत्र शिल। शिल को राज्य सौंपकर पारियान सांसारिक विषयोपभोग में लिप्त हो गया, फलतः उसे शीघ्र ही बुढ़ापे ने आ घेरा। शिल का पुत्र नाभि हुआ। यह वास्तव में सम्पूर्ण पृथ्वी की नाभि (धुरी)की तरह था। नाभि का पुत्र वज्रनाभ हुआ जो इन्द्र के समान तेजस्वी था और संग्राम में वज्र के समान उसकी ललकार गूंजती थी। वज्रनाभ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शंखण राजा हुआ और उसके बाद उसका पुत्र हरिदश्व । हरिदश्व का पुत्र विश्वसह हुआ। विश्वसह ने वृद्धावस्था आने पर अपने पुत्र हिरण्यनाभ को राज्य दे दिया और स्वयं वन को चला गया।
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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