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________________ ३३ सप्तदशसर्ग का कथासार वह उस राजसभा में प्रविष्ट हुअा जो इन्द्र की सुधर्मा नामक देवसभा को मात कर रही थी। देश-देश के नरेशों के राजमुकुट उसके चरणों पर झुक रहे थे । यद्यपि वह किशोर ही था किन्तु युवराज न होकर वह सीधे सम्राट-पद को प्राप्त हो गया था। इस प्रकार वह अयोध्या के राजसिंहासन पर विराजमान हुआ। राजा अतिथि सदा प्रसन्न रहता था। लगता था वह प्रजात्रों के विश्वास की साक्षात् मूर्ति है । ऐरावत-जैसे भव्य हाथी पर चढ़कर उसने सारी अयोध्या का भ्रमण किया। रूप, गुण, वीरता और दूरदर्शिता में वह अपने पूर्वजों-जैसा ही था। थोड़े ही समय में उसका प्रताप समुद्रतट तक पहुँच गया। गुरु वसिष्ठ की मन्त्रशक्ति और राजा अतिथि की धनुःशक्ति, इन दोनों शक्तियों के सम्मिलन से उस समय अयोध्या में कुछ भी असाध्य नहीं था। वह दण्डनीति के विशेषज्ञों की सहायता से शत्रुओं के अभियोगों का निर्णय करता था। उत्तम कार्य करनेवाले भृत्यों को उचित पारितोषिक देता था। सम्पूर्ण प्रजा में उसकी वत्सलता की जैसे बाढ़ आ गई थी। वह झूठे आश्वासन नहीं देता था । जो कहता था उसे करता भी था। शत्रुओं को परास्त कर उन्हें पुनः उनके देशों में अपने अधीन बसा देता था। ___रूप, यौवन और ऐश्वर्य इन तीनों में एक भी किसी को मिले तो वह मदमत्त हो जाता है, परन्तु उसके पास तीनों थे फिर भी उसे अभिमान छू तक नहीं गया था। बहिःशत्रुओं को जीतने से पूर्व उसने काम, क्रोधादि अन्तःशत्रुओं को जीत लिया था। सदा से चंचला कहलानेवाली लक्ष्मी उसके पास आकर स्थिर हो गई थी। उसका सिद्धान्त था कि केवल नीति के भरोसे रहना कायरता है और केवल शूरता पर निर्भर करना पशुता है। अतः वह कार्यसिद्धि के लिये दोनों का समुचित उपयोग करता था। जैसे स्वच्छ आकाश में सूर्य किरणों से सब कुछ दिखाई देता है, ऐसे ही उसके गुप्तचरों से राज्य की कोई घटना छिपी नहीं रहती थी। वह शास्त्रों के आदेशानुसार रात और दिन के लिये अपने कार्यों को नियत कर लेता था । प्रतिदिन अपने मंत्रियों के साथ मन्त्रणा करता था । और उसका कोई भी भेद बाहर नहीं जाने पाता था। मित्रों और शत्रुओं के बीच उसके गुप्तचर ऐसे फैले रहते थे कि वे एक-दूसरे को भी नहीं पहचान पाते थे। वह शत्रुदेशों को आसानी से जीत लेता था किन्तु अपने दुर्गों को निर्बल नहीं होने देता था। जैसे धान की बालों में रहकर ही दाने परिपक्व होते हैं ऐसे ही उसकी प्रजा के लिये कल्याणकर योजनाएँ तभी प्रकट होती थीं जब सफल हो जायं। समुद्र की
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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