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________________ श्री गुरु गौतमस्वामी ] [ ७६६ सृष्टि कर्ता-अकर्ता के संबंध में, वेदों के पौरुषेयत्व के संबंध में, नरक और निर्वाण तथा पुनर्जन्म के संबंध में काफी वर्षों से अस्पष्ट स्थिति बनी हुई थी। अपने शिष्य-परिव्राजकों के समक्ष या अपने युगलभ्राताओं के सामने कहना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ। अस्पष्ट स्थिति के कारण स्वयं विप्रवर मन ही मन खिन्न थे। अपनी अपूर्ण विद्वत्ता पर दुःखी भी.........। येन-केन प्रकारेण इन्द्रभूति को पता चला कि सर्वज्ञ कहलाने वाले श्रमण भगवान महावीर आये हुए हैं। इस कारण देवविमान यज्ञशाला की और न मुड़कर महावीर की ओर चले जा रहे है अभी अभी महावीर ने किसी जाद-मंत्र को साधा है। इस कारण सभी को अपनी ओर खिंचने में लगे हुए हैं। माना कि बनावटी का प्रभाव टिकाऊ नहीं होता है। फिर भी मेरे जैसे विद्वान के लिए यह चुनौती है। वे कैसे सर्वज्ञ हैं। महावीर के समीप जाऊँ। शास्त्रार्थ में उन्हें परास्त कर आऊँ। तभी मैं चैन की साँस ले पाऊँगा। शास्त्रार्थ की दृष्टि से इन्द्रभूति अपने शिष्य-परिवार के साथ प्रभु महावीर की प्रवचनसभा में आ खड़े हुए। दोनों महात्माओं का साक्षात्कार हुआ। प्रभु महावीर की पीयूष-वर्षिणी वाणी से शुभागत इन्द्रभूति के मनोगत समस्त शंका-कुशंकाओं का समीचीन समाधान हुआ। बस, विप्रवर्य की मनोगत शंकाओं की समाप्ति हुई। यथार्थ ज्ञानलोक से अन्तरंग आलोकित हो उठा। समदृष्टि की अभिनव इस दृष्टि ने पंडितवर्य इन्द्रभूति को भगवान महावीर के पावन चरण-कमलों में नतमस्तक कर दिया। साक्षात्कार के वे दिन कितने उल्लासमय रहे होंगे, वह तो भगवंत ही जाने या उनके शिष्य! "भन्ते! आपका पावन दर्शन पाकर आज मेरे अंतरंग जीवन का अंधकार टूट चुका है। यथार्थ तत्त्वों की मुझे अभिरुचि हुई है। आप अपने चरणकमलों में स्थान प्रदान करने की महती कृपा करें। मै आपका शिष्यत्व स्वीकार करना चाहता हूँ।" शासनाधीश प्रभु महावीर ने इन्द्रभूतिजी को श्रमणदीक्षा प्रदान की। श्रमण संस्कृति की गरिमा, महिमा, महानता में चार चाँद लग गये। तद्पश्चात् हज़ारों वैदिक पंडित श्रमण धर्म में दीक्षित हुए। जिसमें प्रमुख थे साधकवर्य इन्द्रभूतिजी, अग्निभूतिजी, वायुभूतिजी और उन्हीं के हज़ारों शिष्य-परिव्राजक। सम्यक् समाधान प्राप्त कर सभी प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षित हो गये। एक दिन में लगभग ४४०० वैदिक पंडित प्रभु महावीर के सान्निध्य में अपना जीवन समर्पित कर धन्य यहो गये। अपने युग की यह अनूठी अद्वितीय उपलब्धि थी धर्मशासन के लिए। महासाधक इन्द्रभूतिजी आगम के पृष्ठों पर गोयम अर्थात् 'गौतम' के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध है-आज लाखों नर-नारियों की ज़बानों पर इन्द्रभूति इस नाम की अपेक्षा गौतम नाम से अधिक प्रचलित हैं। दीक्षा के दिन से गौतमस्वामि बेले-बेले का तपारंभ कर देते हैं। स्वयं प्रभु महावीर ने अपने अंतेवासी गौतम को आगमज्ञान त्रिपद के रूप में प्रदान किया। 'उपन्नेइवा विगमेइवा धुवेइवा' अर्थात् जीवाजीव पर्यायों के उत्पत्ति विज्ञान से, विनाश धर्म विज्ञान से एवम् ध्रौव्यता विज्ञान से अवगत किया। जिनसे द्वादशांगीकी रचना की। “प्रभु महावीर के बड़े शिष्य गौतमगोत्रीय इन्द्रभूतिजी सात हाथ के ऊँचे समचतुस्स, संस्थान संपन्न, वज्र, ऋषभनाराच संहननधारी, विशुद्ध सुवर्ण कांति वाले, गौरवर्णी; उग्र दीप्तिमान, उदार एवं कठोर अभिग्रह तपधारी थे।
SR No.032491
Book TitleMahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year
Total Pages854
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size42 MB
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