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________________ ७६८ ] [ महामणि चिंतामणि विप्रवर इन्द्रभूति के उनचास वसंत पूरे हुए थे । इस अंतराल में उन्होंने वेद एवं वैदिक ग्रंथों का गहनतम पठन-पाठन का क्रम पूरा किया था एवं सैकड़ो- हज़ारों ब्राह्मणपुत्रों को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित भी। इतना ही नहीं, उन्हें वैदिक पद्धति परंपरानुसार शिक्षादीक्षा देकर अपने शिष्य-प्रशिष्यों की एक लंबी परंपरा खड़ी करने में सफल हुए थे । विप्रवर्य के वे सभी परिव्राजक शिष्य पठन-पाठन में, आज्ञा शिरोधार्य करने में, एवं व्यवहार - आचारसंहिता की परिपालना में सक्रिय थे। उन परिव्राजक शिष्यों के लिए गुरुवर्य इन्द्रभूतिजी का आदेश भगवान का आदेश था। अन्य वैदिक पंडितो के साथ कई बार शास्त्रार्थ चर्चाएं की थीं। फलस्वरूप चर्चा के संदर्भ में इन्द्रभूतिजी को अच्छी ख्याति-विजय प्राप्त थी एवं पूरा-पूरा सम्मान भी । विद्वत्ता व धार्मिक–सामाजिक कार्यकलापों में अधिक भाग लेने के कारण जन-जन के मस्तिष्क में वे अच्छी तरह से छा गये थे । लाभ यह हुआ कि प्रत्येक याज्ञिक कार्य में, कथा-कीर्तनों में, सप्ताह, समारोह में एवं यज्ञोपवीत महोत्सव में उपस्थिति के तौर पर जनता उन्हीं का आह्वान करती । तदनंतर कार्य का शुभारंभ होता । इस कारण अब इन्द्रभूतिजी के दिलो-दिमाग में अहंकार की मात्रा का भीतर ही भीतर संवर्धन होना स्वाभाविक था । उनचासवें वर्ष का अतिक्रम करके विप्रवर्य ने पचासवें वर्ष में प्रवेश किया। मेरी दृष्टिमें पचासवाँ वर्ष इन्द्रभूतिजी के लिए सही अर्थों में 'द्विजन्मा' वर्ष था। उन्हीं की भाषा में 'तमसो मा ज्योतिर्मय' – अन्धेरे से प्रकाश की ओर, 'मृत्योर्मामृत गमय' मृत्यु से अमरता की ओर, इसी प्रकार 'असतो मा सद्गमय' अर्थात् असत्य से शाश्वत सत्य की ओर आगे बढ़ने का महत्त्वपूर्ण वर्ष था और लिखूँ तो सुप्त अवस्था का अंत और अन्तर्चेतना का जागरणवर्ष था। अधोमुखी अन्तर्मुखी होने के लिए वे सुनहरे क्षण थे, जो अभ्युदय और कल्याण के रूप में उपस्थित हुए थे । क्रान्ति और उत्क्रान्ति का समय था । वैदिक परंपरा के लिए संभलने का और समझने का समय था । मिथ्या क्रियाकलापों के लिए एवं हिंसक याज्ञिक कृत्यों के लिए प्रचण्ड चेतावनी थी, ब्राह्मण एवं श्रमण विचारधाराओं का सुन्दर संगमयुग था । अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह की चिरवहिनी त्रिवेणी में युगीन युगलधाराओं के विलीनीकरण का यह समय था । आत्मिक तत्त्वों को समझने का, सीखने का और सुनने का स्वर्णिम अवसर था, इन्द्रभूतिजी के लिए । इन्हीं क्षणों सर्वोदय तीर्थ के संस्थापक, महातपस्वी महामुनीन्द्र भगवान महावीर अपनी चिर साधना-आराधना का सर्वोपरि साध्य कैवल्य प्राप्त कर पावापुरी के ईशान कोणस्थ उस शांत सरस उद्यान में पधारे हुए थे । सोल्लास सोत्साह पावापुरी एवं राजगृह के आसपास का एक विशाल जनसमूह तथा सुरलोकवासी देव-देवी अपने परिवार के साथ कैवल्य महोत्सव मनाने के लिए पावापुरी के उस धवल धरातल पर अवतरित - एकत्रित हो रहे थे । भवस्थिति की परिपक्वावस्था सन्निकट आये बिना मंजिल का किनारा पा नहीं सकता कोई भी । पावापुरी के उस ओर विप्रवर्य इन्द्रभूतिजी के नेतृत्व में एक विशाल यज्ञ का आयोजन होने जा रहा था। इस कारण प्रमुख के रूप में विप्रवर्य अपने विशाल परिव्राजकों के साथ वहाँ उपस्थित हुए थे। काफी वर्षों के पश्चात् भगवान महावीर और इन्द्रभूति के साक्षात्कार होने का, मधुर मिलन का यह महत्त्वपूर्ण अवसर था । प्रभु महावीर का शुभ मिलन इन्द्रभूतिजी के लिए मुक्तिद्वार उद्घारित करने में सहायक रहा। विप्रवर्य इन्द्रभूतिजी के मन-मस्तिष्क में आत्मा के अस्तित्व के संबंध में,
SR No.032491
Book TitleMahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year
Total Pages854
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size42 MB
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