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________________ [ 74 ] पैदा हुआ और अभी पगले के समान वैभव त्याग कर उपदेशक बन गया है । जाओजाओ, मैं नहीं आने वाली हूँ। तब देव लोग सोचे-इनको जबरदस्ती लेकर जाना चाहिये । जब देव लोग उनको ले जाने के लिये बाध्य किये, तब धर्म के प्रति द्वेष रखने वाली बुढ़िया मौसी दो सुई लेकर अपनी दोनों आँखें फोड़ डालती है, पुनः बोलती है लो अभी जबरदस्ती आप लोग मुझे लेकर समवसरण जाने पर भी मेरी आँख के अभाव से मैं दीन-हीन पगले महावीर को नहीं देखूगी। देव लोग इस घटना से पश्चात्ताप कर एवं कुछ नवीन संदेश प्रेरणा लेकर वापिस चले गये। उपर्युक्त उदाहरण से सिद्ध होता है कि समवसरण का द्वार सबके लिये मुक्त होने पर भी दूषित मन वाले मिथ्याग्रही, अभव्य, संदेहयुक्त जीवादि स्वभाव से ही समवसरण में नहीं जाते हैं। पूर्व में समवसरण का सविस्तार वर्णन किया गया है। समवसरण के मध्य में स्थित गंधकुटी में बारह सभा होती हैं, जिसमें मनुष्य, देव, पशु आदि प्रेम से एक साथ अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठते हैं। उस बारह सभा के मध्य में जगतोद्धारक, धर्मोपदेशक तीर्थंकर भगवान् सिंहासन के ऊपर चार अंगुल अधर में विराजमान होते हैं। गंधकुटी के बाह्य विभिन्न भाग में नाट्यशाला, प्रेक्षागृह, उपवन आदि होते हैं । जो सम्यक् दृष्टि भव्य दूषित मनोभाव से रहित निर्मल परिणाम वाले संज्ञी पन्चेन्द्रिय जीव होते हैं, वे गंधकुटी में प्रवेश करके दिव्य अमर संदेश सुनते हैं । परन्तु अनन्य जो जीव समवसरण में जाते हैं वे केवल गंधकुटी के बाह्य भाग में नृत्य, गीत, संगीत, नाटक आदि देखते हैं, कोई-कोई वन-उपवन में कीड़ा-विनोद करते हैं। कोई-कोई कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर आनन्द-प्रमोद करते हैं । इस प्रकार धर्म द्वेषी, दूषित मन वाले जीव समवसरण में जाते हुए भी गंधकुटी में जाकर भी दिव्य उपदेश नहीं सुनते, परन्तु बाह्य भाग में मजा-मजलिश क्रीड़ा-राग-रंग में रम जाते हैं । परन्तु जो धर्म-प्रेमी सत्य-जिज्ञासु, आत्म-कल्याणकारी मुमुक्षु जीव होते हैं वे बाह्य राग-रंग में रमते नहीं । गंधकुटी में जाकर अमृतवाणी का पान करते हैं। समवसरण के वैभव मानस्तम्भ-चैत्यवृक्ष आदि के दर्शन के बाद यदि दूषित मनोभाव दूर होकर, निर्मल मनोभाव जागृत होकर, अंहकार दूर हो जाता है तब वह यथार्थ दृष्टि वाला होकर गंधकुटी में प्रवेश करके उपदेशामृत का पान कर सकता है। - गंधकुटी में स्थित कोई जीव के अंतस्थल में यदि कलुषित मनोभाव तीव्र रूप से जागृत हो जाता है तब भी वे गंधकुटी में नहीं रह सकता है । यदि कलुषित मनोभाव शीघ्रातिशीघ्र मन्द होकर पुनः निर्मल मनोभाव जागृत हो जाता है तब वह गंधकुटी में रह सकता है अन्यथा दीर्घकाल तक यदि तीव्र दूषित मनोभाव मन में जागृत रहता है तब वह निश्चित रूप से स्वयं में स्वाभाविक रूप से गंधकुटी से बाहर निकल जाता है। जिस प्रकार आँख में धूलकण गिरने के बाद जब तक धूलकण बाहर नहीं निकल जाता, तब तक आँख में आँसू निकलते रहते हैं और धूलकण निकलने के बाद
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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