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________________ [ 73 1 • मानव पशु तक के लिये निर्बाध रूप से सदाकाल द्वार खुला है । कोई भी जीव के लिये कभी भी प्रतिबन्धक नहीं है । परन्तु जिस प्रकार स्वभावतः सूर्य के पास अन्धकार का प्रवेश नहीं हो पाता है, उसी प्रकार मोहान्धकारी जीव का प्रवेश स्वभावतः समवसरण में नहीं होता है । कोटिरस में सूर्य किसी के प्रति भेदभाव नहीं रखता है तो भी उल्लू को सूर्य का दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार बाह्य आकार-प्रकार में मनुष्य, देव, पशु होते हुए भी जो अंतरंग में उल्लू के समान गुणद्वेषी दोष रागी होते हैं उन्हीं को केवल ज्ञान रूपी सूर्य का दर्शन नहीं होता है । जिस प्रकार गन्ना स्वभावतः मधुर होते हुए भी ऊँट को गन्ना तिक्त लगता है परन्तु नीम स्वभावतः तिक्त होते हुए भी ऊँट को मीठा लगता है । पक्का केला स्वभावतः सुगन्धित, सुस्वादिष्ट होते हुए भी सुअर को रुचिकर नहीं लगता, परन्तु मल को शोध करके खाएगा । उसी प्रकार भाव - कलुषित जीव समवसरण में धर्मप्रति अरुचि के कारण नहीं जाता है । इस सन्दर्भ में एक प्रेरणास्पद रुचिकर उदाहरण निम्न में दे रहा हूँ । जब अहिंसा के अवतार, अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान् केवल बोध प्राप्त करने के बाद पुराण इतिहास प्रसिद्ध सांस्कृतिक नगरी राजगृह के निकटस्थ विपुला - चल पर्वत पर विश्वधर्म सभा (समवसरण ) में विराजमान होकर अहिंसा, सत्य, विश्वमंत्री, समता आदि का अमर संदेश विश्वमात्र को दे रहे थे तब उनके अमृतमयी का आठ पान करने के लिये असंख्यात देव-दानव, मानव, वैर-विरोध हिंसक पशु तक प्रेम-मंत्री भाव से एक साथ समवसरण में भगवान् के मंगलमय अभय चरणकमल के समीप बैठे हुए थे । जब देव लोगों को अवगत हुआ कि महावीर भगवान् की मौसी उपदेश सुनने के लिये नहीं आई है तो कुछ देव महावीर भगवान् की मौसी को समवसरण में लाने के लिये मौसी के पास पहुँचे । मौसी के पास पहुँचकर बोले- महावीर भगवान का दिव्य संदेश सुनने के लिये आप भी चलिये । तब मौसी पूछती है— कौन - सा महावीर भगवान् है ? देव लोगों ने उत्तर दिया- आपके ही वर्द्धमान, महावीर हैं। देवों के उत्तर सुनकर बुढ़िया मौसी घृणा एवं द्वेष से बोलती है, वही पगला महावीर जो कि, राजवैभव, भोग-उपभोग, ठाट-बाट छोड़कर नंगा होकर मारा-मारा जंगल में फिरता है । देव लोग बोले- महावीर भगवान्, आत्मोद्धार और जगत उद्धार के लिये समस्त बन्धनों को काट कर आत्मसाधन के माध्यम से वर्तमान तीन-लोक के पूज्य अरिहन्त तीर्थंकर बन चुके हैं। उनसे प्रभावित होकर विश्व की समस्त शक्तियाँ उनके मंगलमय चरण कमल में नम्र रूप से नतमस्तक हैं । उनके विश्व कल्याणकारी दिव्य संदेश से देव, दानव, मानव यहाँ तक की पशु भी अणुप्राणित उद्बोधित हैं । उनके दिव्य संदेश एवं सानिध्य मात्र से पतितपावन बन जाते हैं, जिस प्रकार पारसमणि स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण रूप में परिणमन हो जाता है । देवों की बात सुनकर दूषित मन वाली बुढ़िया मौसी बोलती है कि, जाओ जाओ देखे हैं, अभी कल का छोकरा है मेरे सामने ही I
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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