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________________ [ 75 ] आंसू स्वयं बन्द हो जाते हैं। उसी प्रकार दूषित मन वाले जब तक गंधकुटी में रहते हैं तब तक अंतरंग-बहिरंग से प्राकृतिक रूप से प्रतिक्रिया चलती है जिससे वह गंधकुटी को छोड़कर बाहर निकल आता है। जैसे--जो तत्त्व समुद्र में घुल-मिलकर समुद्र रूप में परिणमन नहीं करता है उसको समुद्र स्वीकार नहीं करता है । उस विरोधी तत्त्व को बाहर फेंक देता है। उसी प्रकार जो जीव अन्त:करण से, निर्मल भाव से सत्य धर्म को स्वीकार न करके दूषित मनोभाव के कारण सत्य धर्म विरोधी तत्त्व रूप में गंधकुटी में रहता है, उसको स्वभावतः सत्य धर्म स्वीकार नहीं करता, उसे बाहर फेंक देता है। तीर्थंकर भगवान् राग-द्वेष से रहित होने के कारण किसी के ऊपर ममत्व नहीं करते तथा द्वेष भी नहीं करते हैं। परन्तु जैसे वृक्ष के नीचे आने वाले संतप्त पथिक को वृक्ष शीतल छाया दे देता है और नहीं आने वाले को नहीं देता है उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् भी संसारताप नाश करने वाली पवित्र छाया के नीचे आने वाले (दिव्य संदेश के अनुसार चलने वाला) संसार का ताप नाश करके चिरकाल सुख-शान्ति प्राप्त करते हैं । जो पवित्र छाया के नीचे नहीं आते, वे संसार के ताप भोगते रहते हैं। पर्यावरण, परिस्थिति, देश, काल, भाव आदि का सूक्ष्म, स्थूल, प्रगट एवं अप्रगट परिणाम दूसरे के ऊपर भी पड़ता है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में वर्षा, शीत ऋतु में शीत, ग्रीष्म ऋतु में उष्णता का प्रभाव पड़ता है। समुद्र तट में विशेष शीत एवं उष्णता की बाधा नहीं होती परन्तु समशीतोष्ण परिस्थिति रहती है। वातानुकूल प्रकोष्ठ में तीव्र शीत एवं उष्ण की बाधा नहीं होती है। समशीतोष्ण परिस्थिति रहती है । उसी प्रकार समवसरण (गंधकुटी) में विशेष एक अलौकिक, आध्यात्मिक परिसर के कारण तथा अहिंसा, करुणा, प्रेम, सत्य की जीवन्त मूर्तिस्वरूप विश्वउद्धारक तीर्थंकर के आध्यात्मिक अद्भुत महात्म्य से गंधकुटी में स्थित जीवों को आतंक, रोग, मरण, जन्म, वैर , यौनबाधा, तृष्णा और क्षुधा की बाधाएँ भी होती हैं । उपर्युक्त बाधाएँ पाप, कर्म तथा दूषित मनोभाव से होती हैं परन्तु तीर्थंकर के प्रभाव से गंधकुटी में स्थित जीवों के मन में अहिंसा, प्रेम, मैत्री, वैराग्य आदि की पवित्र मंदाकिनी धारा बहती है जिससे उपर्युक्त बाधाएँ नहीं होती हैं । अष्टमहाप्रातिहार्य (1) सिंहासन तस्या मध्ये संहं पीठं नानारत्नवाताकीर्णम् । मेरोः शृङ्ग न्यक्कुर्वाणं चने शनादेशाद् वित्तेट् ॥25॥ आ० पु० अ० 13-पृ० 542 उस गंधकुटी के मध्य में धनपति ने एक सिंहासन बनाया था जो कि अनेक प्रकार के रत्नों के समूह से जड़ा हुआ था और मेरू पर्वत के शिखर को तिरस्कृत कर
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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