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________________ [ 72 ] इसका कारण लेन्स के कांच का वैशिष्ट्य है । सामान्य कांच में इस प्रकार प्रतिबिम्ब नहीं आ सकता है उसी प्रकार सामान्य मनुष्यों के कारण उनके क्षेत्र में अनेक जीव कम क्षेत्र में नहीं रह सकते हैं परन्तु विशिष्ट अलौकिक प्रतिभासम्पन्न महापुरुषों के कारण अधिक जीव, कम क्षेत्रफल में रहने में बाधा नहीं आती है । पूर्व वर्णित अक्षीण क्षेत्रऋद्धि सम्पन्न मुनिवर जिस छोटी सी गुफा में रहते हैं उस गुफा में अनेक afबना बाधा से रह सकते हैं । जब एक सामान्य ऋद्धिधारी मुनीश्वर के महात्म्य से ऐसा होना सम्भव है तब क्षायिक नवलब्धि सम्पन्न विश्व के सर्वोत्कृष्ट महापुरूषों के निमित्त से कम क्षेत्र में अधिक जीव रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । प्रवेश - निर्गमन प्रमाण संखेज्ज-जोयणाणि, बाल-प्यहूदी पवेस- णिग्गमणे । अंत्तोमुहुत्त काले, जिण माहप्पेण गच्छति ॥940॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान् के महात्म्य से बालक - प्रभृति जीव समवसरण में जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते 1194011 समवसरण में कौन नहीं जाते ? मिच्छाईट्ठि अभव्या, तेसु असण्णी ण होंति कइयावि । तह य अणज्झवसाया, संदिद्धा विविह-विवरीया ॥ 941॥ अर्थ- - समवसरण में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं वाले जीव भी नहीं होते ॥ 941॥ समवसरण में रोगादि का अभाव आतंक - रोग-मरणुप्पत्तीओ वेर-काम- बाधाओ । तण्हा खुह पीड़ाओ, जिण माहप्पेण ण वि होंति ॥ 942 ॥ अर्थ - जिन भगवान् के महात्म्य से आतङ्क, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामबाधा तथा पिपासा और क्षुधाकी पीड़ाएँ वहाँ नहीं होतीं ॥942॥ समवसरण में आने वाले दूर-दूर के भव्य श्रद्धालु धर्मात्मा, अबाल वृद्ध-वनिता भगवान् की अलौकिक आध्यात्मिक प्रेरणा से प्रेरित होकर एवं भगवान् के महात्म्य से प्रभावित होकर संख्यात योजन दूरी को केवल अन्तर्मुहूर्त में (48 मिनट के मध्य में) पार करके भगवान् की आत्मकल्याणकारी वाणी को सुनने के लिये समवसरण में पहुँच जाते हैं । जिस प्रकार सूर्य के पास अंधकार का प्रवेश होना असम्भव है उसी प्रकार धर्म-सूर्य तीर्थंकर के समवसरण में दूषित, संदेहपूर्ण, मिथ्याभिप्रायः युक्त, हिताहितविचारहीन (असंज्ञी), श्रद्धाहीन, विभिन्न कुटिल अभिप्राय सहित जीव पहुँचना असम्भव है | तीर्थंकर भगवान् जगत् हिताकांक्षी, विश्व बन्धु होने के कारण वे 'सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय' धर्मोपदेश देते हैं । विश्व धर्म सभा में पूर्व वर्णितानुसार देव-दानव, 1
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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