SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ xi ] जगत् गुरु, सर्व जीव उपकारी क्रान्ति के अग्रदूत निर्दोष भगवान् जिनेन्द्र का धर्मतीर्थ, सर्वजीव हितकारी, सर्वजीव सुखकारी, उभय लोक मंगलमय, सर्व अभ्युदय के कारण होने से इनके तीर्थ को समन्त भद्र स्वामी ने सर्वोदय तीर्थ कहा है सन्ति वत्तद् गुण मुख्य कल्पं सन्ति शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिद तवैव ॥61॥ युक्तानुशासन हे वीर भगवान् ! आपका तीर्थ प्रवचनरूप शासन अर्थात् परमागम वाक्य जिसके द्वारा संसार' महासमुद्र को तिरा जाता है सर्वान्तवान् है—सामान्य-विशेष द्रव्यपर्याय, विधि-निषेध एक-अनेक, आदि अशेष धर्मों को लिए हुए हैं और गौण तथा मुख्य की कल्पना को साथ में लिये हुए हैं । एक धर्म मुख्य हैं तो दूसरा धर्म गौण हैं, इसी से सुव्यवस्थित है, उसमें असंगतता अथवा विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है । जो शासन वाक्य धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है; वह सर्वधर्मों से शून्य है; उसमें किसी भी धर्म का अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासन-तीर्थ सर्व दुःखों का अन्त करने वाला है, यही निरन्त है, किसी भी मिथ्या दर्शन के द्वारा खण्डनीय नहीं है, और यही सब प्राणियों के अभ्युदय का कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का साधक ऐसा सर्वोदय तीर्थ है। सर्वोदय तीर्थ होने के लिए कुछ विशेष गुणों से युक्त होना अनिवार्य है। जो तीर्थ निर्दोष साम्यभावी, उदार, गुणग्राही सर्व जीव हितकारी, समसामयिक हो वही तीर्थ सर्वोदय हो सकता है । "सापेक्ष सिद्धान्त से युक्त सर्व विरोध से रहित स्याद्वादात्मक अनेकान्त सिद्धान्त ही सर्वोदय शासन है" ऐसा समन्त भद्र स्वामी ने उद्घोषणा किया है यथा अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाऽविरोधतः स्याद्वादः। इतरो न स्याद्वादो सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ॥ पृष्ठ 319 श्लोक 3 हे मुनिनाथ ! 'स्यात्' शब्द पुरस्सर कथन को लिए हुए आपका जो स्याद्वाद है, अनेकान्तात्मक प्रवचन है, वह निर्दोष है, क्योंकि दृष्ट प्रत्यक्ष और इष्ट आगमादिक प्रमाणों के साथ उसका कोई विरोध नहीं है, दूसरा 'स्यात्' शब्द पूर्वक कथन से रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं है; क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनों के विरोध को लिए हुए है, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित ही नहीं हैं, किन्तु अपने इष्ट अभिमत को भी बाधा पहुंचाता है और उसे किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy