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________________ [ 79 ] थी कि क्या यह भगवान् के शरीर की कान्ति ही ऊपर को जा रही है अथवा चन्द्रमा की किरणों का समूह ही नीचे की ओर पड़ रहा है । अमृत के समान निर्मल शरीर को धारण करने वाली और अतिशय देदीप्यमान वह ढुरती हुई चमरों की पंक्ति ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो वायु से कम्पित तथा देदीप्यमान कान्ति को धारण करने वाली हिलती हुई और समुद्र के फेन की पंक्ति ही हो। चन्द्रमा और अमृत के समान कान्ति वाली ऊपर से पड़ती हुई वह उत्तम चमरों की पंक्ति बड़ी उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त हो रही थी ओर ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेन्द्र भगवान् की सेवा करने की इच्छा से आती हुई क्षीर-समुद्र की वेला ही हो । क्या ये आकाश हंस उतर रहे हैं अथवा भगवान् का यश ही ऊपर को जा रहा है ? इस प्रकार देवों के द्वारा शंका किये जाने वाले वे सफेद चमर भगवान् के चारों ओर ढुराये जा रहे थे। जिस प्रकार वायु समुद्र के आगे अनेक लहरों के समूह उठाता रहता है उसी प्रकार कमल के समान दीर्घ नेत्रों को धारण करने वाले चतुर यक्ष भगवान् के आगे लीलापूर्वक विस्तृत और सफेद चमरों के समूह उठा रहे थे अर्थात् ऊपर की ओर ढोर रहे थे । अथवा वह ऊँची चमरों की पंक्ति ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो उन चमरों का बहामा प्राप्त कर जिनेन्द्र भगवान् की भक्तिवश आकाश गंगा ही आकाश से उतर रही हो अथवा भव्य जीवरूपी कुमुदिनियों को विकसित करने के लिये चांदनी ही नीचे की ओर आ रही हो। इस प्रकार जिन्हें अतिशय संतोष प्राप्त हो रहा है और जिनके नेत्र प्रकाशमान हो रहे हैं ऐसे यक्षों के द्वारा दुराये जाने वाले वे चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति के धारक चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भगवान् के गुण समूहों के साथ स्पर्धा ही कर रहे हों। शोभायमान अमृत की राशि के समान निर्मल और अपरिमित तेज तथा कान्ति को धारण करने वाले वे चमर भगवान् वृषभदेव के अद्वितीय जगत् के प्रभुत्व को सूचित कर रहे थे। 148 to 58॥ लक्ष्मीसमालिङ्गितवृक्षसोऽस्य श्रीवृक्षचिन्हं दधतो जिनेशः । प्रकीर्णकानाममितद्युतीनां धोन्द्राश्चतुःषष्टिमुदाहरन्ति ॥59॥ जिनका वक्ष स्थल लक्ष्मी से आलिंगित है और जो श्रीवृक्ष का चिन्ह धारण करते हैं ऐसे श्रीजिनेन्द्र देव के अपरिमित तेज को धारण करने वाले उन चमरों की संख्या विद्वान् लोग चौंसठ बतलाते हैं । इस प्रकार सनातन भगवान् जिनेन्द्र देव के 64 चमर कहे गये हैं और वे ही चमर चक्रवर्ती से लेकर राजा पर्यन्त आधे-आधे होते हैं अर्थात् चक्रवर्ती के बत्तीस, अर्धचक्री के सोलह, मण्डलेश्वर के आठ, अर्धमण्डलेश्वर के चार, महाराज के दो और राजा के एक चमर होता है। (6) देव दुन्दुभी सुरदुन्दुभयो मधुरध्वनयो निनदन्ति सदा स्म नमोविवरे । जलदागमभङ्किभिरून्मदिभिः शिखिभिः परिवीक्षितपद्धतयः ॥61॥
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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