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________________ [ 80 ] इसी प्रकार उस समय वर्षा ऋतु की शंका करते हुए मदोन्मत मयूर जिनका मार्ग बड़े प्रेम से देख रहे थे ऐसे देवों के दुन्दुभी मधुर शब्द करते हुए आकाश में बज रही थी। जिनका शब्द अत्यन्त मधुर और गम्भीर था, ऐसे पणव, तुणव, काहल, शंख और नगाड़े आदि बाजे समस्त दिशाओं के मध्य भाग को शब्दायमान करते हुये तथा आकाश को आच्छादित करते हुए शब्द कर रहे थे। देवस्वरूप शिल्पियों के द्वारा मजबूत दण्डों से ताड़ित हुए वे देवों के नगाड़े जो शब्द कर रहे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कुपित होकर स्पष्ट शब्दों में यही कह रहे हों कि अरे दुष्टों! तुम लोग जोर-जोर से क्यों मार रहे हो? क्या यह मेघों की गर्जना है ? अथवा जिसमें उठती हुई लहरें शब्द कर रही हैं ऐसा समुद्र ही क्षोभ को प्राप्त हुआ है ? इस प्रकार तर्कवितर्क कर चारों और फैलता हुआ भगवान् की देवदुन्दुभियों का शब्द सदा जयवंत रहे ॥61 to 64॥ (7) भामण्डल प्रमया परितो जिनदेहभुवा जगती सकला समवादिसृतेः। रूरचे ससुरासुरमयंजनाः किमिवाद्भुतमीडशि धाम्नि विभोः ॥65॥ सुर, असुर और मनुष्यों से भरी हुई वह समवसरण की समस्त भूमि जिनेन्द्र भगवान् के शरीर से उत्पन्न हुई तथा चारों ओर फैली हुई प्रभा अर्थात् भामण्डल से बहुत ही सुशोभित हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि भगवान के ऐसे तेज में आश्चर्य ही क्या है। तरूणार्करूचि नु तिरोदधति सुरकोटिमहांसि नु निर्धनती। ' जगदेकमहोद यमासृजति प्रथमे स्म तदा जिनदेहरूचिः ॥66॥ उस समय वह जिनेन्द्र भगवान के शरीर की प्रभा मध्यान्ह के सूर्य की प्रभा को तिरोहित करती हुई अपने प्रकाश में उसका प्रकाश छिपाती हुई, करोड़ों देवों के तेज को दूर हटाती हुई और लोक में भगवान् का बड़ा भारी ऐश्वर्य प्रकट करती हुई चारों ओर फैल रही थी। जिनदेहरूचावमृताब्धिशुचौ सुरदानवमर्त्यजना ददृशुः। स्वभवान्तरसप्तकमात्तमुदो जगतो बहु मङ्गलदर्पणके ॥67॥ अमृत के समुद्र के समान निर्मल और जगत को अनेक मंगल करने वाले दर्पण के समान, भगवान् के शरीर की उस प्रभा (प्रभामण्डल) में सुर, असुर और मनुष्य लोग प्रसन्न होकर अपने सात-सात भव देखते थे। 'चन्द्रमा शीघ्र ही भगवान् के छत्रत्रय की अवस्था को प्राप्त हो गया है' यह देखकर ही मानो अतिशय देदीप्यमान सूर्य भगवान् के शरीर की प्रभा के छल से पुराण कवि भगवान् वृषभदेव की सेवा करने लगा था । भगवान् का छत्रत्रय चन्द्रमा के समान था और प्रभामण्डल सूर्य के समान था ॥67 to 68॥ (8) सम्पूर्णगण णिभरभत्तिपसता अंजलिहत्था पफुल्लमुहकमला। चट्ठति गणा सम्वे एक्केतकं पेढिऊणजिणं पृ० 932॥ति०प०अ० 4
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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