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________________ [ 78 ] (4) छत्रत्रय छत्रं धवलं रूचिमत्कान्त्या चान्द्रीमजयद्रुचिरां लक्ष्मीम् । त्रेधा रूरुचे शशभृन्नूनं सेवां विदधज्जगतां पत्युः ॥42॥ भगवान के उपर जो देदीप्यमान सफेद छत्र लगा था उसने चन्द्रमा की लक्ष्मी को जीत लिया था और वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो तीनों लोकों के स्वामी भगवान् वृषभदेव की सेवा करने के लिये तीन रूप धारण कर चन्द्रमा ही आया हो। वे तीनों सफेद छत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो छत्र का आकार धारण करने वाले चन्द्रमा के बिम्ब ही हों, उनमें जो मोतियों के समूह लगे हुये थे वे किरणों के समान जान पड़ते थे। इस प्रकार उस छत्र-त्रितय को कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा से बनाया था। वह छत्रत्रय उदय होते हुये सूर्य की शोभा की हँसी उड़ाने वाले अनेक उत्तमउत्तम रत्नों से जड़ा हुआ था तथा अतिशय निर्मल था इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो चन्द्रमा और सूर्य के सम्पर्क (मेल) से ही बना हो। जिसमें अनेक उत्तम मोती लगे हुये थे, जो समुद्र के जल के समान जान पड़ता था, बहुत ही सुशोभित था, चन्द्रमा की कान्ति को हरण करने वाला था, मनोहर था और जिसमें इन्द्रनील मणि भी देदीप्यमान हो रही थी ऐसा वह छत्रत्रय भगवान् के समीप आकर उत्कृष्ट कान्ति को धारण कर रहा था । क्या यह जगतरूपी लक्ष्मी का हास्य फैल रहा है ? अथवा भगवान् का शोभायमान यशरूपी गुण है ? अथवा धर्मरूपी राजा का मन्द हास्य है ? अथवा तीनों लोकों में आनन्द करने वाला कलंक रहित चन्द्रमा है ? इस प्रकार लोगों के मन में तर्क-वितर्क उत्पन्न करता हुआ वह देदीप्यमान छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मोहरूपी शत्रु को जीत लेने से इकट्ठा हुआ तथा तीन रूप धारण का ठहरा हुआ भगवान् के यश का मण्डल ही हो ।।42 to 471 (5) 64 चमर पयः पयोधेरिव वीचिमाला प्रकीर्णकानां समितिः समन्तात् । जिनेन्द्रपर्यन्तनिषेविपक्षकरोत्करैराविरभूद् विधूता ॥48॥ जिनेन्द्र भगवान के समीप में सेवा करने वाले यक्षों के हाथों के समूहों से जो चारों ओर चमरों के समूह ढराये जा रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो क्षीरसागर के जल के समूह ही हों । अत्यन्त निर्मल लक्ष्मी को धारण करने वाला वह चमरों का समूह ऐसा जान पड़ता था मानो अमृत के टुकड़ों से ही बना हो अथवा चन्द्रमा के अंशों से ही रचा गया हो तथा वही चमरों के समूह भगवान् के चरण कमलों के समीप पहुँचकर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किसी पर्वत से झरते हुए निर्झर ही हों। यक्षों के द्वारा लीलापूर्वक चारों ओर दुराये जाने वाले निर्मल चमरों की वह पंक्ति बड़ी ही सुशोभित हो रही थी और लोग उसे देखकर ऐसा तर्क किया करते थे मानो यह आकाशगङ्गा ही भगवान की सेवा के लिए आयी हो । शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान सफेद पड़ती हुई वह चमरों की पंक्ति ऐसी आशंका उत्पन्न कर रही
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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