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________________ दुःखों का मूल पाप है - उसे पहचानो - पृथ्वी के समस्त जीव दुःखों से तो अवश्य डरते हैं। छोटी चींटी से लगाकर हाथी तक के समस्त जीव, देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारकीय आदिसब दुःखों से अत्यन्त भयभीत होते हैं। अत: इन समस्त जीवों को दुःखों के मूल कारण पाप से परिचित करा दिया जाये तो वे अनेक पापों से बच सकते हैं। जिन्हें दुःख नहीं चाहिये उन जीवों को पापों से डरना चाहिये क्योंकि दुःख का मूल पाप है। यदि मूल-स्वरूप पाप नहीं किया जाये तो दुःख भोगना नहीं पड़ेगा। अत: निम्न श्लोक अवश्य कण्ठस्थं कर लेना चाहिये - सुखं धर्मात् दुःखं पापात्, सर्वशास्त्रेषु संस्थितिः। न कर्त्तव्यमत: पापं, कर्तव्यो धर्मसंचयः।। अर्थ - सुख धर्म से ही आता है और दुःख पाप से ही आता है, यह बात समस्त धर्म-शास्त्रों में बताई गई है। अत: पाप नहीं करना चाहिये और धर्म का संचय अवश्य करना चाहिये। दुःखों एवं पापों का प्रगाढ सम्बन्ध यदि ज्ञात हो जाये तो अनेक पापों से बचा जा सकता है, परन्तु दुःख की बात तो यह है कि अधिकतर लोग 'दुःखों का कारण पाप है' इस तथ्य से अनभिज्ञ होने के कारण जब जब जीवन में दुःख आते हैं, तब तब उन्हें दूर करने के लिये वे अनेक उल्टे मार्ग ही अपनाते हैं और वे मार्ग प्राय: पाप-स्वरूप होते हैं। इस प्रकार दुःखों को दूर करने के लिये नवीन पाप और उनके फलस्वरूप नूतन दुःखों का विष चक्र चलता ही रहता है। तो... दुःख भी उपकारक बन जायें - मनुष्य जानता है कि असत्य, हिंसा, चोरी आदि पाप कहलाते हैं परन्तु वर्तमान मानव प्राय: यह नहीं जानता कि ये समस्त पाप ही मेरे दुःखों के कारण हैं। यदि इस बात पर पूर्ण श्रद्धा हो जाये कि दुःख पाप से ही आते हैं तो दुःखों से भयभीत होने के बदले मानव पापों से भयभीत होने लग जाये। दुःखों का कारण हमारे स्वयं के ही पाप हैं - यदि यह बात अच्छी तरह समझ में आ जायेगी तो जब जब दुःख आयेंगे तब तब उनके कारण के रूप में जगत् के अन्य मानवों के प्रति द्वेष अथवा धिक्कार उत्पन्न नहीं होगा, परन्तु यह तो मेरे ही पापों का फल है' - यह विचार करने का अवसर प्राप्त होगा। इससे एक प्रकार का आश्वासन प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त दुःख आने पर पापों से अधिकाधिक भयभीत होने की प्रेरणा प्राप्त होगी। इस प्रकार दुःख भी हमारे लिये उपकारक बन जायेगा। श्वान-वृत्ति नहीं, सिंह-वृत्ति अपनाओ 3866600 66500909000
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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