SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ RECERELER Á JASIJASON cecece है यह कहने की - 'इण्डिया में कुछ नहीं है, इण्डिया में क्या है ? लोग कितने गंदे हैं? कितने बेईमान और भ्रष्ट हैं ? मार्ग एवं मकान कितने सँकरे एवं अस्वच्छ हैं ? विदेशों को देखो, अमेरिका कितना आगे बढ़ गया है ? रूस कितनी प्रगति कर रहा है ? वैज्ञानिक लोग चंद्रमा में पहुँच गये, फिर भी अबी तक भारत नहीं सुधरा ।” गहरी, ज्ञान-विहीन फैंक मारने की अनेक मनुष्यों को आदत पड़ गई है। इस प्रकार अशिष्ट मनुष्यों के आचारों की प्रशंसा करके हमारे ही देश के अनेक मूर्ख लोग उनका प्रचार कर रहे हैं, जो अत्यन्त दुःखद है। 'आपका स्थान हमारे चरणों में....' 66 स्वामी विवेकानन्द के समान सत्व वाले मनुष्य इस देश में अत्यन्त अल्प हैं। विदेशों में धर्म प्रचारार्थ घूम घूम कर स्थान-स्थान पर भाषण देते स्वामी विवेकानन्द ने एक बार अपने भाषण में अंग्रेजों की जीवन पद्धति की कठोर समीक्षा की थी और भारतीय संस्कृति का अत्यन्त गुणगान किया था। यह सुनकर कुछ अंग्रेजों को बुरा लगा। अतः उसी सभा में खड़ी होकर एक अंग्रेज युवती ने स्वामी विवेकानन्द को पूछा, "स्वामीजी ! आप हमारी पाश्चात्य संस्कृति की अत्यन्त आलोचना करते हैं, तो फिर क्या मैं आपको पूछ सकती हूँ कि आपने अपनी वेष-भूषा तो भारतीय रखी है, परन्तु आपने हमारी पाश्चात्य पद्धति से बने बूट पाँवों में क्यों पहने हैं? कहना कुछ और करना कुछ यह आप जैसों के लिये शोभनीय नहीं है । " स्वामीजी का उत्तर सुनने के लिये सब लोग अधीर हो उठे। उस युवती का प्रश्न सचमुच उलझन में डाल देने वाला था। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी स्वस्थता को तनिक भी खोये बिना कहा, "हमारे भारत देश में आप पश्चिम के लोगों का स्थान कहाँ है - यह बताने के लिये ही मैंने आपके देश में बने बूट पाँवों में पहन रखे हैं। " वह उत्तर सुनकर अंग्रेज तो बिचारे ठण्डे ही पड़ गये। भारतीयों के प्रति विवेकानन्द का सम्मान इस प्रकार का उत्तर देने के पीछे स्वामी विवेकानन्द के मन में अंग्रेजों के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं था, परन्तु शिष्टाचार सम्पन्न भारत के प्रति, उसकी संस्कृति के प्रति अहोभाव था । जब स्वामी विवेकानन्द भारत लौटे तब किसी पत्रकार को आशा थी कि अब स्वामीजी विदेशों में अनेक स्थानों का परिभ्रमण करके लौटे हैं तब वे वहाँ के अंग्रेजों के जीवनव्यवहार आदि को देख कर निश्चित रूप से प्रसन्न हुए होंगे और भारतवासियों की अशिष्टता, पिछड़ेपन आदि के प्रति इन्हें घृणा उत्पन्न हुई होगी। इस आशा से उसने स्वामीजी को पूछा, “विदेशों CCCCCCCCCE 44 5853383an.
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy