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________________ NROEROSCO090909096 * कदाचित् वे विशिष्ट प्रकार की वक्तृत्व-शक्ति के स्वामी तथा सहस्रों मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करके मानव-मेदिनी एकत्रित करने में कुशल भी हो सकते हैं। भौतिक समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए उन व्यक्तियों के अनेक स्वरूप हो सकते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन करने पर वे पूर्णत: 'हीन' होते हैं, क्योंकि उन्हें मोक्ष की ओर तनिक भी रूचि नहीं होती। मोक्ष के लक्ष्य की बात तो दूर रही, परन्तु मोक्ष का नाम सुनते ही मानो सहस्रों चींटियाँ उन्हें डंक मार नहीं हो, उस प्रकार की उन्हें व्यथा होती है। इतना ही नहीं, मोक्ष का वर्णन करने वाले साधु भगवन्तों पर भी उन्हें क्रोध आता है। जिन व्यक्तियों को मोक्ष प्रिय नहीं लगता, उन्हें भला धर्म प्रिय कैसे लग सकता है? उपलक दृष्टि से कदाचित् वे धर्म करते हों तो भी वह उनका केवल बाह्य आडम्बर होता है, अथवा वे गतानुगतिकता से एक करता है अत: दूसरा भी करता है - इस प्रकार भेड चाल की तरह होता है। इस प्रकार के उनके धर्म में कुछ भी महत्व नहीं होता। इस कारण ही उन्हें वास्तविक अर्थ में धर्म पुरूषार्थ के साधक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'धर्म पुरुषार्थ' तो वहीं होता है जो मोक्ष का लक्ष्य करके किया जाता हो। इन आत्माओं को तो मोक्ष तो तनिक भी प्रिय नहीं होता, फिर उनके धर्म को मोक्षलक्षी नहीं होने से धर्म पुरुषार्थ कैसे कहा जा सकता है। हाँ, ये अर्थ एवं काम को प्राप्त करने योग्य अवश्य मानते हैं। उन्हें त्याग करने की बुद्धि उनमें नहीं होती। इस कारण ये अर्थ और काम की प्राप्ति के लिये सदा तत्पर रहते हैं। जहाँ जहाँ से, जिस जिस प्रकार से अर्थ और काम प्राप्त हो सकते हों, उन्हें प्राप्त करने के लिये ये सदा दौड़-धूप करते रहते हैं, क्योंकि अर्थ एवं काम अधिकाधिक प्राप्त करने से इस लोक में अवश्य सुखी हो सकते है, इस प्रकार की उनकी मान्यता होती है। इन्हें प्राप्त करने में यदि अन्याय एवं अनीति का आश्रय लेना पड़ता हो, चोरी, विश्वासघात अथवा कपट ढंग से हो सकते हों तो उन्हें करने में भी उन्हें कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती, क्योंकि ये पाप-कर्म करते समय उनके मन में तनिक भी यह विचार नहीं होता कि परलोक में हमारा क्या होगा? इनका तो प्रमुख सूत्र होता है कि - "यह भव मीठा तो परभव कौन दीठा?" मोक्ष के कट्टर विरोधी, अत: धर्म के भी आराधक नहीं होते तथा किसी भी कीमत पर अर्थ-काम को प्राप्त करने में तत्पर होने के कारण इन्हें शास्त्रकार 'मिथ्यादृष्टि' (मिथ्यात्वी) अथवा महा मिथ्यादृष्टि (महा मिथ्यात्वी) कहते हैं। इस प्रकार हमने पाँच प्रकार की आत्माओं के सम्बन्ध में चर्चा की :(1) सर्व विरतिधर (साधु अथवा साध्वी), (2) देशविरतिधर (3) सम्यग्दृष्टि, (4) मार्गानुसारी और (5) मिथ्यादृष्टि। उपर्युक्त पाँचों में से 'मार्गानुसारी आत्मा' के जीवन में कैसे कैसे गुण होते हैं उनके विषय में MOREG560 15909090900
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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