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________________ २ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ धागा पिरो सकता हूँ, क्यों कि मैं ३५ सालसे ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा हूँ, इसके प्रभावसे मेरी आँखोंमें ऐसी शक्ति उत्पन्न हुई है । इस प्रसंग का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा एवं उन्होंने भी अपनी धर्मपत्नी की संगति से केवल ६ महिनों में ही पत्नी के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार लिया । ' धर्म के कार्यमें विलंब क्यों' इसके अनुसंधानमें वनमालीदासभाई ने कहा कि 'अच्छी बातका आचरण कल पर नहीं टालना चाहिए । 'आज.. आज.. भाई ! अभी ही' आचरण करना चाहिए । यदि आत्महितकर बात का आचरण आजसे ही प्रारंभ करने में असफल रहेंगे तो कल भी उसका प्रारंभ करनेमें असफलता ही हाथ लगेगी । ( 'अभी, नहीं तो कभी नहीं' ) हाँ, बूरे विचारों को कार्यान्वित करने के लिए 'आज नहीं, कल सोचेंगे' यह नीति समुचित है । चढते परिणामों से नवकारसी एवं चौविहार के नियमका पालन करते हुए वनमालीदासभाई के अंतःकरणमें क्रमशः ऐसे शुभ भाव जाग्रत हुए कि, 'हे जीव ! नवकारसी - चौविहार तो कई जीव करते हैं, मगर तू तीर्थंकर परमात्माने बताये हुए उत्कृष्ट पच्चक्खाण 'अवड्ढ' को स्वीकार कर, जिससे तेरे अनंत कर्मों का शीघ्र ही क्षय हो जाय' । इसी भावना से उन्होंने वि.सं. २०२३ में महा वदि १४ के दिन अहमदाबादमें पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म.सा. के श्रीमुखसे 'आजीवन अवड्ढ एकाशन करने की भीष्म प्रतिज्ञा ले ली !!!.. वे कहते हैं कि, " परिस्थिति प्रारब्ध के अधीन है, मगर धर्मपुरुषार्थ तो स्वाधीन है".." किसी भी वस्तु को निर्माण करनेमें समय लगता है, मगर विनाश करनेमें विशेष समय नहीं लगता है, इस लिए प्रतिकूल परिस्थितिमें भी अपने नियमों का पालन दृढतापूर्वक करना चाहिए" । एकबार शारीरिक अस्वस्थता के कारण, वनमालीदास भाई को अपने बड़े भाई के अत्यंत आग्रहवशात् अवड्ढ के बदले में पुरिमड्ड पच्चक्खाण लेना पड़ा, मगर बादमें उनके अंतःकरणमें इतना दुःख हुआ कि दूसरे ही दिन इसके प्रायश्चित्त के रूपमें चौविहार उपवास कर लिया ।.. पिछले ३२ वर्षोंमें कभी भी इस नियममें परिवर्तन करने का प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ है !.. अपने आत्मबल को अधिक अधिकतर विकसित करने के लिए
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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