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________________ २१६ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ तपश्चर्या करनेवाले इन महातपस्वी श्रावकरन की तपश्चर्या का वर्णन पढकर हे धर्मप्रिय वाचक ! कम से कम आजीवन नवकारसी - चौविहार करने का दृढ संकल्प तो आप जरूर करेंगे ऐसी अपेक्षा है । घरमें गृह जिनालय एवं ज्ञानभंडार का सुंदर आयोजन करनेवाले इन सुश्रावक श्री के घरमें ("आधुनिक कई गृहस्थों के घरों की तरह सिने अभिनेता-अभिनेत्रीओं के केलेन्डर तो कहाँ से होंगे" !!) प्रवेश करते ही मानो किसी उपाश्रय आदि धर्मस्थान में प्रवेश किया हो ऐसे पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं। सात लाख से अधिक रूपयों का सात क्षेत्रों में सद्व्यय करने द्वारा दानधर्म की आराधना करनेवाले, ४० वर्ष की उम्रसे ब्रह्मचर्य व्रत एवं श्रावक के १२ व्रतों के स्वीकार करने द्वारा शीलधर्म की आराधना करने वाले, तीन उपधान तप के साथ उपरोक्त अनेक प्रकार की तपश्चर्या से तपधर्म की आराधना करनेवाले, छरी पालक संघों के द्वारा अनेक तीर्थों की भावपूर्वक यात्रा करनेवाले, कई वर्षोसे खड़की (पूना) जैन संघ के जिनालय में एवं श्री जीरावल्ला पार्श्वनाथ तीर्थ (राजस्थान)में ट्रस्टी के रूपमें निष्ठापूर्वक सेवा देनेवाले इन धर्म सपूत को, धर्मचक्रतप के बहुमान प्रसंग पर घर्मचक्रतप प्रभावक प.पू. गणिवर्य श्री जगवल्लभविजयजी म.सा.ने सकल श्री संघ की उपस्थिति में दि. ८-१०-९८ के दिन "श्रावक शिरोमणि" की उपाधि प्रदान करने द्वारा आशीर्वाद दिये वह अत्यंत उचित ही है। मूलत: मारवाड़ के किन्तु वर्षों से खड़की (पूना) जैन संघमें रहते हुए एवं देश-विदेश के लाखों लोगों के प्रिय इन सुश्रावक की जिनशासन . को मिली हुई भेंट की कथा भी अत्यंत रोमांचक है । जब जन्म हुआ तब नहीं रोते हुए इस बालक को मृत जानकर परिवार के लोग स्मशान की ओर ले जा रहे थे मगर रास्ते में नवजात शिशु का हलन चलन देखकर उसे वापिस घर लाया गया । जन्म के समय में अत्यंत ठंड लगने से मृतप्राय: हो गये इस बालक को संघ एवं समाज के महान पुष्पोदय से उसकी मौसीने जिनशासन को समर्पित कर दिया ।
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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