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________________ ४३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ साथ २८ बार अट्ठाई तप (२) नवपदजीकी ३५ ओलियाँ (३) वर्धमान तपकी १८ ओलियाँ (४) बीसस्थानक की १ ओली (५) १ उपधान तप आदि तपश्चर्याएँ की हैं । विशिष्ट पर्वतिथियों में चौविहार उपवास के साथ पौषध करते हैं । ३५ वर्षों से जमीकंदका त्याग है। दीक्षा के बिना यह सब आराधना बिना सक्कर के दूध बराबर ऐसा वे मानते हैं। सं. २०३० में प.पू. मुनिराज (हाल पंन्यास प्रवर) श्रीचंद्रशेखर विजयजी म.सा. के साबरमतीमें चातुर्मास के दौरान उन्होंने एक महिने तक सम्मेतशिखरजी आदि अनेक जैन तीर्थों की यात्रा की । साबरमती से पालिताना एवं वलभीपुर से पालिताना छ:'री'पालकसंघोंमें शामिल होकर तीर्थयात्राएँ की हैं। उनके घरके सभी सदस्य जैन धर्म का पालन करते हैं । कंदमूल आदि अभक्ष्य नहीं खाते हैं । पुरुषोत्तमभाई ने सेलूनमें भी अरिहंत परमात्मा एवं गुरु भगवंतोंकी तस्वीरें दिवार पर लगायी हैं, ताकि बारंबार अपने जीवन के लक्ष्य की स्मृति बनी रहे । (आजकाल कई जैन श्रावक भी अपने घरमें आशात-नाके काल्पनिक भयसे देव-गुरु की तस्वीरें एवं धार्मिक किताबें नहीं रखते हैं, किन्तु अभिनेता एवं अभिनेत्रियों की तस्वीर युक्त केलेन्डर अपने घरमें रखनेमें उनको प्रभु-आज्ञाका उल्लंघन रूप आशातना नहीं दिखाई देती ! ऐसे श्रावक-श्राविकाओं को पुरुषोत्तमभाई के दृष्टांत से प्रेरणा लेकर सुधार करना चाहिए । आशातना के भयसे देव-गुस्की तस्वीरें एवं ज्ञान - दर्शन - चारित्र के उपकरणों का अपने घर से दूर करना यह तो गूंके भयसे वस्त्र त्यागने जैसी विचित्र बात है । आशातना न हो इसका पूरा खयाल रखकर रत्नत्रयी के उपकरण आदि श्रेष्ठ आलंबन घरमें अवश्य रखने चाहिए ।) जैन कुलोत्पत्र भी कई श्रावक-श्राविकाएँ, साधु-साध्वीजी भगवंतों के मार्ग में आमने-सामने होने पर अपना विवेक चूक जाते हैं, और कुछ श्रावक तो "क्यों महाराज ! ठीक होना ?" इत्यादि बोलकर जैसे गृहस्थ के साथ बातचीत करते हैं उसी तरह साधु-साध्वीजी भगवंतों के साथ भी
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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