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________________ ३३५ निसीहज्झयणं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। उद्देशक १५: सूत्र १३०-१३६ अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। दंत-पदं दन्त-पदम् दंत-पद १३०. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३०. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज दन्तान् आघर्षे वा प्रघर्षेद्वा, आघर्षन्तं दांतों का आघर्षण करता है अथवा प्रघर्षण वा, आघसंतं वा पघंसंतं वा वा प्रघर्षन्तं वा स्वदते। करता है और आघर्षण अथवा प्रघर्षण करने सातिज्जति॥ वाले का अनुमोदन करता है। १३१. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३१. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो दंते उच्छोलेज्ज वा दन्तान् उत्क्षालयेद् वा प्रधावेद् वा, दांतों का उत्क्षालन करता है अथवा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते। प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा वा सातिज्जति॥ प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है। १३२. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३२. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा, दन्तान् ‘फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् दांतों पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है फुमेंतं वा रएंतं वा सातिज्जति॥ वा, 'फुतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा और फूंक देने वाले अथवा रंग लगाने वाले स्वदते। का अनुमोदन करता है। उट्ठ-पदं ओष्ठ-पदम् ओष्ठ-पद १३३. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३३. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो उढे आमज्जेज्ज वा ओष्ठौ आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् वा, ओष्ठ का आमार्जन करता है अथवा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा आमाजन्तं वा प्रमार्जन्तं वा स्वदते । प्रमार्जन करता है और आमार्जन अथवा पमज्जंतं वा सातिज्जति॥ प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करता है। १३४. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः अप्पणो उद्धे संवाहेज्ज वा ओष्ठौ संवाहयेद् वा परिमर्दयेद् वा, पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंतं वा संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते । पलिमहेंतं वा सातिज्जति॥ १३४. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने ओष्ठ का संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता १३५. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३५. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो उद्धे तेल्लेण वा घएण वा ओष्ठौ तैलेन वा घृतेन वा वसया वा ओष्ठ का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज नवनीतेन वा अभ्यज्याद् वा म्रक्षेद् वा, से अभ्यंगन करता है अथवा म्रक्षण करता वा मक्खेज्ज वा, अब्भंगेंतं वा अभ्यञ्जन्तं वा व्रक्षन्तं वा स्वदते। है और अभ्यंगन अथवा प्रक्षण करने वाले मक्खेंतं वा सातिज्जति॥ का अनुमोदन करता है। १३६. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३६. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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