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________________ निसीहज्झयणं उद्देशक १५ : सूत्र १३७-१४१ अप्पणो उढे लोद्धेण वा कक्केण वा ओष्ठौ लोध्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वर्णेन वा उल्लोलयेद् वा उद्वर्तेत वा, वा उव्वदृज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तमानं वा स्वदते । उव्वटेंतं वा सातिज्जति ॥ ओष्ठ पर लोध, कल्क, चूर्ण अथवा वर्ण का लेप करता है अथवा उद्वर्तन करता है और लेप अथवा उद्वर्तन करने वाले का अनुमोदन करता है। १३७. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३७. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो उढे सीओदग-वियडेण वा ___ओष्ठौ शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदक- ओष्ठ का प्रासुक शीतल जल अथवा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज विकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा प्रधावेद् वा, प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करता है वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते। अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन पधोवेंतं वा सातिज्जति॥ अथवा प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है। १३८. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३८. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो उढे फुमेज्ज वा रएज्ज वा, ओष्ठौ 'फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् ओष्ठ पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है फुमेंतं वा रएंतं वा सातिज्जति॥ वा, 'फुतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का स्वदते। अनुमोदन करता है। दीह-रोम-पदं दीर्घरोम-पदम् दीर्घरोम-पद १३९. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १३९. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से उत्तरोष्ठ अप्पणो दीहाइं उत्तरो?-रोमाइं दीर्घाणि उत्तरौष्ठरोमाणि कल्पेत वा की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा संठवेंतं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। १४०. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १४०. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो दीहाइं णासा-रोमाई दीर्घाणि नासारोमाणि कल्पेत वा नाक की दीर्घ रोमराजि को काटता है कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा अथवा व्यवस्थित करता है और काटने संठवेंतं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। अच्छि -पत्त-पदं अक्षिपत्र-पदम् अक्षिपत्र-पद १४१. जे भिक्खू विभूसावडियाए यो भिक्षुः विभूषाप्रतिज्ञया आत्मनः १४१. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अप्पणो दीहाइं अच्छि-पत्ताई दीर्घाणि अक्षिपत्राणि कल्पेत वा दीर्घ अक्षिपत्रों को काटता है अथवा कप्पेज्ज वासंठवेज्ज वा, कप्तं वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा संठवेंतं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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