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________________ (25) अननुज्ञात विगय खाने, स्थापनाकुलों में बिना पूछे जाने, अट्टहास एवं कलह करने आदि के साथ परस्पर पाद-परिमार्जन आदि कार्य करने एवं परिष्ठापनिका समिति विषयक अनेक अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। पांचवें उद्देशक में सचित्त वृक्ष के पास बैठने, खड़े होने, स्वाध्याय आदि अन्य क्रियाएं करने, अन्यतीर्थिक आदि से अपनी संघाटी सिलवाने, सचित्त, रंगीन एवं रंग-बिरंगे दारुदण्ड आदि के ग्रहण धारण एवं परिभोग, पादप्रोज्छन, दण्ड, लाठी आदि को यथानुज्ञात समय पर न लौटाने, नवनिवेशित ग्राम आदि में भिक्षार्थ जाने, विविध वाद्यों आदि के शब्द करने, औद्देशिक, प्राभृतिकायुक्त एवं परिकर्मयुक्त उपाश्रय में रहने, असांभोजिक के साथ व्यवहार विधियों के अतिक्रमण, दृढ़ एवं धारणीय वस्त्र, पात्र आदि के परिष्ठापन एवं रजोहरण विषयक निर्देशों के अतिक्रमण का लघुमासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। छठे एवं सातवें उद्देशक में अब्रह्म के संकल्प से की जाने वाली क्रियाओं के लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। अब्रह्म हेतु स्त्री को प्रार्थना करने, हस्तकर्म करने, एतद् विषयक प्रच्छन्न या प्रकट लेख लिखने, लिखवाने, विविध प्रकार की माला, आभूषण, वस्त्र आदि के निर्माण, धारण एवं परिभोग तथा स्त्री, पशु, पक्षी आदि के साथ इस भावना से विविध क्रियाकलाप करने से ब्रह्मचर्य महाव्रत विराधित होता है। अतः इनका अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आठवें उद्देशक में प्रारम्भ में अकेली स्त्री के साथ विविध सार्वजनिक स्थानों में आहार-विहार, वार्तालाप आदि करने, निर्ग्रन्थी के साथ आर्तध्यानयुक्त होकर परिव्रजन आदि करने एवं गृहस्थ के साथ रात्रिसंवास आदि का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है तथा पश्चाद्वर्ती भाग में मूर्धाभिषिक्त राजा की अंशिका वाले अथवा उससे सम्बन्धित अशन, पान आदि को ग्रहण करने का गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। नौवें उद्देशक में भी राजा, राजपिण्ड एवं एतद्विषयक अतिक्रमणों के लिए गुरु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। दसवें उद्देशक में मुख्यतः आचार्यादि के प्रति परुष बोलने, आशातना करने, अनन्तकाय युक्त अथवा आधाकर्म आहार का भोग करने, शैक्षापहार एवं दिशापहार करने, प्रायश्चित्त के विपरीत प्ररूपण एवं दान, रात्रिभोजन विषयक अतिक्रमण, सेवाविषयक एवं पर्युषणा विषयक विविध विधियों के अतिक्रमण का गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ग्यारहवें उद्देशक में विविध धातुघटित एवं बहुमूल्य पात्रों के निर्माण, धारण एवं परिभोग, धर्म एवं अधर्म के अवर्ण एवं वर्णवाद अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ के पादपरिमार्जन, कायपरिमार्जन आदि करने, स्वयं तथा अन्य को भयभीत, विस्मापित एवं विपर्यस्त करने वैराज्य आदि में गमनागमन करने, परिवासित अशन, पान आदि के परिभोग, संखड़ी गमन, नैवेद्यपिण्ड के भोग, यथाच्छन्द की वन्दना-प्रशंसा करने, अयोग्य को दीक्षित करने, सचेल-अचेल के संवास एवं बालमरण की प्रशंसा आदि का गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। बारहवें उद्देशक में करुणा भाव से त्रस प्राणियों को बांधने-खोलने, प्रत्याख्यान भंग करने, परित्तकाय संयुक्त आहार करने, सलोम चर्म पर बैठने, गृहस्थ के वस्त्र से आच्छन्न पीढ़े आदि पर बैठने, स्थावर काय के समारम्भ एवं सचित्त वृक्ष पर आरोहण करने, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र एवं निषद्या का उपभोग करने, उसकी चिकित्सा करने, पुरःकर्मकृत हाथ आदि से भिक्षा ग्रहण तथा विविध दर्शनीय स्थलों को देखने की प्रतिज्ञा से जाने, कालातिक्रान्त एवं मार्गातिक्रान्त भोजन करने, परिवासित गोबर, आलेपन आदि का उपभोग करने एवं महानदियों में बारम्बार उत्तरण-संतरण का लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। तेरहवें उद्देशक में अव्यवहित, सरजस्क, सस्निग्ध आदि पृथ्वी पर शय्या, निषद्या आदि करने, चलाचल स्थानों पर शय्या, निषद्या आदि करने, गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक के लिए कौतुककर्म, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, व्यंजन, स्वप्न, मंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करने, दर्पण, घी, तेल आदि में स्वयं का प्रतिबिम्ब देखने, वमन-विरेचन आदि करने, पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को वन्दना-नमस्कार करने, धात्रीपिण्ड, दूतीपिण्ड आदि का भोग करने का लघुचातुर्मासिक दण्ड प्रज्ञप्त है। चौदहवें उद्देशक में पात्र-विषयक विविध अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। पन्द्रहवें उद्देशक में सचित्त एवं सचित्त प्रतिष्ठित आम्र एवं आम्रखण्ड को खाने, भिक्षु के प्रति आगाढ परुष आदि बोलने, अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ से स्वयं के पादप्रमार्जन, कायप्रमार्जन आदि करवाने, धर्मशाला, आरामागार आदि अस्थानों में परिष्ठापन करने, गृहस्थ आदि को आहार-वस्त्र आदि देने, पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधुओं के साथ वस्त्र, पात्र, आहार आदि के आदान-प्रदान करने तथा विभूषा-भाव से स्वयं के पादप्रमार्जन, कायप्रमार्जन आदि करने एवं विभूषा के लिए वस्त्र, पात्र आदि को रखने, धोने आदि का लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त सोलहवें उद्देशक में सदोष शय्या, सचित्त एवं सचित्त प्रतिष्ठित इक्षु एवं इक्षुखण्ड खाने, वन में ईंधन आदि लाने के लिए प्रस्थित एवं प्रतिनिवृत्त आरण्यक लोगों से अशन आदि ग्रहण करने, संविग्न को असंविग्न और असंविग्न को संविग्न कहने, निह्नवों के साथ अशन,
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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